शहर विधान सभा क्षेत्र के सपा विधायक व पूर्व चेयरमैन आबिद रजा की पत्नी फात्मा रजा निकाय चुनाव में अध्यक्ष पद के लिए भाजपा के ओमप्रकाश मथुरिया के मुकाबले हार गयीं। पक्ष और विपक्ष के लोग हार के कारणों की समीक्षा अपने-अपने तरीके से कर रहे हैं, लेकिन सच्चाई यही है कि सपा समर्थित प्रत्याशी फात्मा रजा विधायक आबिद रजा की तेज चाल और पार्टी की गुटबंदी के कारण ही हारीं। आबिद रजा ने विधायक बनते ही विधान सभा क्षेत्र में दौरे किये, सरकारी कार्यालयों का निरीक्षण किया, साथ ही कई तरह के बयान दिये, जिससे सपा के ही नेताओं को भय सताने लगा कि जनपद के प्रभावशाली नेता आबिद रजा न जायें। उन्होंने यह सब जनता की भलाई को ध्यान में रखते हुए ही किया, लेकिन संदेश यही गया कि वह अहंकार के चलते यह सब कर रहे हैं, जिससे आम आदमी की सोच उनके प्रति बदल गयी। यही पहली वजह रही कि अधिकांश लोग यह सोचने लगे कि निकाय चुनाव में पत्नी फात्मा रजा भी जीत गयीं, तो आबिद रजा निरंकुश हो जायेंगे। हार का दूसरा कारण पार्टी की गुटबंदी भी रही है। पार्टी के कई बड़े नेता सांसद धर्मेन्द्र यादव के सामने तो बड़ी-बड़ी बातें करते नजर आये, लेकिन उनके जाते ही सब कुछ बदल गया, जिससे आबिद रजा अकेले पड़ गये। इसके अलावा कुछ कसर बाकी बची थी, वह कांग्रेस प्रत्याशी के रूप में वसीम अंसारी ने पूरी कर दी। खैर, जो भी हो, पर इस हार की भरपाई आबिद रजा लंबे समय तक नहीं कर पायेंगे, क्योंकि पत्नी को चेयरमैन बना कर वह मंत्री पद के सशक्त दावेदार हो जाते, वहीं शहर में जो शान चेयरमैन की होती है, वह विधायक की कभी नहीं हो सकती, लेकिन वह उस शान से फिलहाल वह दूर हो गये हैं। उधर आबिद रजा के पार्टी के अंदर के ही विरोधियों को आज कल अच्छी नींद आ रही होगी, क्योंकि आबिद रजा की कार्यप्रणाली के सामने वह दूर तक नहीं ठहरते हैं। अपने व्यवहार और कार्य से वातावरण को अपने पक्ष में कर लेने की आबिद रजा की विशेष खूबी है, जो हार के नीचे काफी दिनों तक दबी रह सकती है।
सलीम शेरवानी के जमाने में शान से जीते आबिद: पांच वर्ष पूर्व सपा शासन में ही हुए निकाय चुनाव में आबिद रजा चेयरमैन पद के लिए मैदान में उतरे थे, तब उन्होंने चेयरमैन का पद झटके से झपट लिया था, क्योंकि उस समय सपा के बड़े नेता के तौर पर स्थापित सलीम इकबाल शेरवानी का हाथ उनके सिर पर था, लेकिन इस बार खुद विधायक होने के बावजूद वह प्रशासन की मदद नहीं ले पाये। माना रहा है कि उस समय सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव स्वयं मुख्यमंत्री थे, जो उदारवादी थे, जिससे वह कई लोगों की मदद लीक से हट कर दिया करते थे, यह आदत उनका अवगुण भी कही जा सकती है, लेकिन इस बार मुख्यमंत्री की कमान अखिलेश यादव के हाथ में है, जो गलत बात सपने में भी स्वीकार नहीं करते हैं।
राजीव के लिए औपचारिकता ही थे चुनाव: बदायूं की नगर पंचायत दातागंज की पहचान चेयरमैन राजीव गुप्ता से ही की जाने लगी है। उनके मधुर व्यवहार के कारण उनसे एक बार जो मिल लेता है, वह उनका ही होकर रह जाता है। मिलने वाला छोटी सी मुलाकात को भी कभी भूल नहीं पाता। निकाय चुनाव के नामांकन के समय ही अधिकांश लोगों ने मान लिया था कि चुनाव तो एक मात्र औपचारिकता भर है।
अधिकांश लोग राजीव गुप्ता की जीत निश्चित मान रहे थे। बस, जीत के अंतर को लेकर कयास लगाये जा रहे थे। चुनाव परिणाम आये, तो लोगों का विश्वास सही निकला। लोकप्रियता के रिकार्ड को राजीव गुप्ता ने ध्वस्त कर दिया है। उन्होंने आजादी से अब तक हुए सभी चुनाव के मुकाबले जीत के अंतर का नया रिकार्ड बनाया है, जिससे उनके समर्थकों में खुशी की लहर है।
भाजपा के स्तंभ हैं वीरेन्द्र लीडर : बदायूं जनपद के कस्बा इस्लामनगर को बाहर के लोग वीरेन्द्र लीडर के नाम से ही जानते हैं। परिवार में लंबे समय अध्यक्ष पद रहने के कारण परिवार को ही चेयरमैन परिवार के संबोधन से बुलाने लगे हैं। पिछले दो चुनाव में राजनैतिक हालात कुछ इस तरह बदले कि यह परिवार अध्यक्ष पद से दूर हो गया था, लेकिन इस बार वीरेन्द्र लीडर के नाम की इस्लामनगर में ऐसी आंधी चली कि उसमें सब बह गये। जनपद के पश्चिमी छोर पर बसे इस्लामनगर क्षेत्र में वह भाजपा के स्तंभ भी माने जाते हैं।