लोकसभा चुनाव फ़तेह करने की तैयारी में छोटे-बड़े सभी दल जुटे हुए हैं और सत्ता पाने की दिशा में अंदर ही अंदर रणनीति बना रहे हैं, लेकिन भारतीय जनता पार्टी चुनाव बाद सत्ता अपनी मानते हुए चुनाव की तैयारी करने की जगह प्रधानमंत्री चुनने की रणनीति पर काम कर रही है, इसलिए भाजपा की प्रतिद्वंदता खुद से ही है। भाजपा को अगले चुनाव में दलों से नहीं, बल्कि खुद से ही लड़ना है। भाजपा को मात देने की शक्ति किसी दल में नहीं है और न ही देश में इस समय ऐसा कोई नेता है, जो भाजपा के लिए बड़ी चुनौती हो। भाजपा के लिए भाजपा ही चुनौती है। वह खुद से जीत गई, तो देश पर शासन करने की दिशा में कोई ऐसी बड़ी बाधा नहीं है, जो उसे रोक सके।
देश का राजनैतिक वातावरण सत्ताधारी कांग्रेस के विरुद्ध नज़र आ रहा है। पिछले दिनों जयपुर में हुए कांग्रेस के चिंतन शिवर में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी ने भी स्पष्ट माना कि कांग्रेस का जनाधार घट रहा है, इसके बाद हुए एक देशव्यापी सर्वे में भी यह साफ़ हो गया कि कांग्रेस के मुकाबले भाजपा बढ़त ले रही है। भ्रष्टाचार और महंगाई के साथ लचर तन्त्र से आम आदमी बेहद खफा है, लेकिन नेतृत्व के अभाव में आम आदमी आक्रोश का प्रदर्शन नहीं कर पा रहा। आम आदमी के उसी आक्रोश के सहारे अन्ना हजारे और रामदेव भी चर्चित हो चुके हैं। अन्ना और रामदेव के दावे व वादे नेताओं की तरह ही सिद्ध होते दिखे, तो आम आदमी दूर हट गया। आम आदमी सुशासन चाहता है। भयमुक्त वातावरण के साथ उसे सहजता से जीवन यापन के लिए सब चाहिए, जिसे देने का विश्वास अन्ना हजारे और रामदेव आम आदमी में नहीं जगा सके, इसलिए रामदेव और अन्ना हजारे जनता के बीच नहीं टिक पाये। राजनैतिक परिवर्तन कोई राजनैतिक दल ही कर सकता है। सत्ताधारी कांग्रेस के विरुद्ध आम आदमी ऐसा राजनैतिक दल चाहता है, जो कांग्रेस के नेतृत्व में चल रही यूपीए सरकार से बेहतर शासन दे सके। आम आदमी की भावनाओं के अनुरूप देश की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी और प्रमुख विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी आम आदमी की नज़र में राजनैतिक विकल्प बनने में अब तक असफल रही है। भाजपा में आपसी प्रतिद्वंता शीर्ष नेताओं के निजी स्वार्थ के चलते सीमा पार कर ईर्ष्या और द्वेष तक पहुँच गई है, जिसके चलते एक अनुभवहीन और पूरी तरह से व्यवसायी सोच के व्यक्ति नितिन गडकरी जैसा प्रांतीय स्तर का नेता राष्ट्रीय अध्यक्ष बन गया, इससे बड़ी फजीहत की बात और क्या हो सकती है। राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा में समकक्ष नेताओं की संख्या इतनी अधिक हो गई है कि सब एक-दूसरे से स्वयं को बेहतर सिद्ध करते हुए बड़ा नेता दिखाने के प्रयास में ही ऊर्जा का क्षय कर रहे हैं और यही वह प्रमुख कारण है, जिससे सब स्वयं को प्रधानमंत्री पद से कम का दावेदार नहीं मानते और इसीलिए अनुशासन तार-तार होता रहता है। यही सब नेता मिल कर पार्टी, देश और समाज हित में ऊर्जा खर्च कर रहे होते, तो चुनाव भाजपा के लिए मात्र औपचारिकता भर होते, पर प्रधानमंत्री पद को लेकर भाजपा में जारी टांग खिंचाई बंद होने का नाम ही नहीं ले रही है, जिससे आम आदमी की नजर में भाजपा की स्थिति कांग्रेस से बेहतर नहीं रह गई है।
आम आदमी अब दावों और वादों पर अधिक विश्वास नहीं करता। आम आदमी की राजनीतिज्ञों के प्रति सोच पूरी तरह बदल गई है। इतना आम आदमी भी जान गया है कि नेता सब एक जैसे ही हैं और सभी को ऐश्वर्य और वैभव सुख के लिए सत्ता चाहिए। आम आदमी की सोच यूं ही नहीं बदली है। आज़ादी से अब तक वह तमाम नेताओं और तमाम दलों पर विश्वास कर देख चुका है। आम आदमी की सोच अनुभव के आधार पर बदली है, इसलिए उसे अब और मूर्ख नहीं बनाया जा सकता। राम मन्दिर के निर्माण और कश्मीर की समस्या के समाधान का संकल्प लेकर जन्म लेने वाली भाजपा आज इन मुद्दों पर चर्चा तक नहीं करती। भाजपा के पास अन्य दलों से अलग-थलग दिखने के लिए एक मात्र हिन्तुत्व ही बचा था, जिसे लालकृष्ण आडवाणी जिन्ना पर विवादित बयान देकर खत्म कर चुके हैं, इसके बाद पार्टी ऐसे लोगों के हाथों में चली गई, जिनसे आम आदमी का कोई मतलब ही नहीं है। सुषमा स्वराज दिल्ली शहर की नेता हैं। राजधानी में रहने का मतलब राष्ट्रीय नेता नहीं हो सकता, पर आज वह भाजपा की प्रमुख राष्ट्रीय नेता मानी जाती हैं, इसी तरह दिल्ली में ही रहने वाले अरुण जेटली पार्टी के दूसरे प्रमुख राष्ट्रीय नेता कहे जाते हैं। एक लोकसभा में पार्टी का नेतृत्व कर रहा है और एक राज्यसभा में, जबकि दोनों ही राज्यसभा के सदस्य हैं। भाजपा नेता बार-बार बयान देते हैं कि उनकी पार्टी में प्रधानमंत्री बनने के गुण रखने वाले तमाम नेता हैं, तो क्या भाजपा के पास एक भी लोकसभा सदस्य ऐसा नहीं है, जो लोकसभा में पार्टी का प्रतिनिधित्व कर सके या भाजपा के पास सबसे बुद्धिमान और गुणवान नेता यही दो हैं, ऐसा है, तो भाजपा के पास फिर एक भी कारण ऐसा नहीं है, जिसके आधार पर आम आदमी को उसे वोट देना चाहिए।
आम आदमी का विश्वास जीतने के लिए भाजपा को चुनाव पूर्व प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार का नाम घोषित करना ही होगा, क्योंकि जिन व्यक्तियों के दबाव में प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार का नाम घोषित नहीं हो पा रहा है, चुनाव बाद उन व्यक्तियों के दबाव में ही प्रधानमंत्री नहीं बैठाया जाएगा, इस बात की गारंटी कौन देगा? इसलिए संभावना के अँधेरे में भाजपा समर्थकों में जोश नहीं भर सकती, उसे स्पष्ट करना होगा कि बहुमत मिलने पर प्रधानमंत्री कौन बनाया जाएगा। एक तरह से देखा जाए, तो चुनाव बाद प्रधानमंत्री चुनना लोकतांत्रिक भी नहीं है, क्योंकि बहुमत मिलने पर प्रधानमंत्री थोपा जाएगा, पर भाजपा नेताओं के क्रियाकलापों को देखते हुए फिलहाल ऐसा नहीं लगता कि वह प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी का नाम भाजपा नेता घोषित कर पायेंगे। लालकृष्ण आडवाणी, सुषमा स्वराज, अरुण जेटली और राजनाथ सिंह को देश और पार्टी की चिंता होती, तो वह जनभावनाओं की बात कर रहे होते। देश के अधिकाँश राज्यों से नरेंद्र मोदी को प्रत्याशी बनाने की मांग हो रही है। आम कार्यकर्ताओं के साथ पार्टी के बड़े नेता भी मोदी के पक्ष में खुल कर बोल रहे हैं, ऐसे में नेताओं और कार्यकर्ताओं की भावनाओं के अनुसार पार्टी नेताओं को निर्णय लेना चाहिए और अगर, उनकी मांग नाजायज है, तो फिर यह भी सोचना चाहिए कि उनकी भावनाओं के विपरीत निर्णय लेकर चुनाव में किसके बल पर उतरेगी?
भाजपा के शीर्ष नेताओं को यह अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि उसके पास ऐसा एक भी मुद्दा नहीं है, जिसके आधार पर आम आदमी उसे कांग्रेस से बेहतर माने। मंहगाई, आतंकवाद, भ्रष्टाचार और लापरवाही कांग्रेस सरकार की विफलता है, जिसे भाजपा की सफलता नहीं माना जा सकता, ऐसे में भाजपा के पास एक मात्र चेहरा नरेंद्र मोदी ही है, जिसके नाम पर देश में भाजपा के पक्ष में लहर आ सकती है। गुजरात में लगातार चुनाव जीत कर मोदी ने खुद को हर तरह सिद्ध भी कर दिया है। वह कट्टर हिंदूवादी नेता होने के साथ कुशल प्रशासक भी हैं। अगर वह अकर्मण्य और सांप्रदायिक हैं, तो इसका निर्णय अब जनता की अदालत में ही होना चाहिए। एक निर्वाचित मुख्यमंत्री को दिल्ली के बंद कमरे में बैठ कर विफल कहना सरासर तर्कहीन है। भाजपा मोदी को प्रत्याशी घोषित करने की जंग जीत गई, तो 2014 का लोकसभा चुनाव उसके लिए औपचारिकता ही होगा, वरना जहाँ है, वहां से और नीचे जाने से उसे कोई नहीं रोक सकता।
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