पूर्वोत्तर में बाढ़ ने जीवन दूभर कर रखा है और उत्तर भारत में किसान कभी धरती में पड़ी दरारों को देख रहा है और कभी आग बरसाते आसमान को। भारतीय उपमहाद्वीप वर्षा ऋ तु के कारण अपनी अलग पहचान रखता है। यहाँ उत्तर के लोग जब चार-चार कंबल ओढक़र भी ठंड से ठिठुर रहे होते हैं, तो दक्षिण के लोग आराम से एक लुंगी में घूमते दिखाई देते हैं। इस विषमता के बावजूद पूरे भारत का वर्षा काल एक-दो पखवाड़े के अंतर से लगभग एक ही रहता है। भारत को यूं ही देवभूमि नहीं कहा जाता। इस देश को जो प्राकृतिक संसाधन मिले हैं, वे ईश्वर प्रियता का ही परिणाम हैं। इतने प्रकार के अनाज, दलहन, उपज, खनिज, फल-सब्जी अन्यत्र दुर्लभ है, जिसे जो जितनी सुगमता से प्राप्त होता है, वह उसकी उतनी ही कम कद्र करता है। यही हमारे साथ भी हुआ है। हमारे ज्ञानी पूर्वजों ने तो प्रकृति का महत्व समझा, पर हम अपनी इस सम्पदा का मोल नहीं समझ पाये। पश्चिम की नकल करते-करते हमारी स्थिति उस लकड़हारे सरीखी हो गयी है, जो चन्दन की लकड़ी को जलाकर, उसका कोयला बनाकर बेचता है। कृषि भूमि का अंधाधुंध अधिग्रहण, वनों की कटाई, पहाड़ों का कटान, रेत खनन और नदियों पर बने विशाल बांध हमें किस गर्त की ओर ले जा रहे हैं, इसका कुछ-कुछ भान होते हुए भी लोग शुतुरमुर्ग की भांति आँखें मूँदे हैं। विज्ञान कितनी भी तरक्की कर ले, धरती की प्यास नहीं बुझा सकता। हम नहीं सुधरे, तो अथाह जलराशि से भरे सागर के बीच भी पानी के लिए तड़पती मीन बनने में देर नहीं लगेगी।
Share on Facebook
Follow on Facebook
Add to Google+
Connect on Linked in
Subscribe by Email
Print This Post