इंसान को वास्तविक ज्ञान अनुभव से ही होता है, इसका सबसे बड़ा प्रमाण आज नरेंद्र मोदी के रूप में सामने है। पिछले दस वर्षों में उनके साथ इतना सब घटा है कि अब उनसे गलियां आसानी से नहीं होंगी। फिलहाल सिर्फ उनके भाषण की करें, तो आज वह भाषण कला में माहिर हो चुके हैं। अगर, यह कहा जाये कि वर्तमान में उनके जैसा वक्ता देश में नहीं है, तो यह कहना भी अतिश्योक्ति नहीं होगा। उनके चुनिंदा शब्द और उनका बोलने का विशिष्ट अंदाज़ प्रभावी तो है ही, तभी उनके भाषण का श्रोताओं पर गहरा असर पड़ता है, इसके अलावा उनके शब्दों के कई-कई मतलब होते हैं, लेकिन वह इस अंदाज़ में बोल जाते हैं कि उन्हें अब कठघरे में खड़ा नहीं कर सकते। इससे पहले वह मंच से किसी खास समुदाय की भलाई-बुराई कर देते थे, जिस पर उनकी कड़ी आलोचना होती थी। उनके वे शब्द किसी खास वर्ग को भले ही भाते हों, लेकिन सामाजिक दृष्टि से उनकी छवि लगातार खराब भी हो रही थी, पर वैसी गलतियाँ वह अब करते नहीं दिखते।
उत्तर प्रदेश के गोरखपुर में गुरूवार को आयोजित की गई विजय शंखनाद रैली में भी उन्होंने द्विअर्थी शब्दों के सहारे अपनी बात रखी। सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव पर जवाबी हमला करते हुए उन्होंने कहा कि “गुजरात बनाने के लिए 56 इंच का सीना चाहिए।” उनके यह कहने का आशय स्पष्ट समझ आ रहा है, वह अपनी कट्टरपंथी छवि के अनुसार ही जवाब देकर गुजरात दंगों को पौरुष का कार्य बता गये। उन्होंने 56 इंच का सीना कह कर स्वयं को पराक्रमी और साहसी बताने का प्रयास किया, जिस पर उनके समर्थक बेहद खुश नज़र आ रहे हैं।
नरेंद्र मोदी उत्तर प्रदेश और गुजरात के विकास की तुलना कर रहे थे। वह बिजली और कृषि की बात कर रहे थे, जिसमें 56 इंच के सीने की चुनौती पूर्ण बात जोड़ने की आवश्यकता ही नहीं थी। साफ़ है कि उन्होंने यह चुनौती पूर्ण बात जान कर ही कही, ताकि इशारे से गुजरात दंगों की बात याद दिला कर अपने समर्थकों के दिलों की गहराई में उतर जायें। नरेंद्र मोदी अच्छी तरह जानते हैं कि उनकी लोकप्रियता का आधार गुजरात दंगे ही हैं। वह यह भी अच्छी तरह जानते हैं कि गुजरात दंगों को लोग भूल गये, तो उनकी लोकप्रियता भी घट जायेगी, इसलिए विकास, समानता, आम जनता, गरीब और देश की बात करते हुए वह यह भी प्रयास करते रहते हैं कि लोग दंगों और दंगों में उनकी भूमिका को याद रखें। गोरखपुर कट्टरपंथियों का गढ़ माना जाता है, इसलिए नरेंद्र मोदी ने सोच-समझ कर गलत बात को गलत जगह जोड़ा और अपने समर्थकों को जो संदेश देना चाहिए था, वह संदेश दे दिया, पर उन्हें कठघरे में खड़ा नहीं कर सकते, क्योंकि वह अब भाषण कला में माहिर हो चुके हैं, लेकिन ऐसी भाषा से भी समाज टूटेगा। सामाजिक दूरियां और बढ़ेंगी। हो सकता है कि इन दूरियों में ही उनका विशेष लाभ हो, पर बात जब देश और समाज की आती है, तो कहीं न कहीं देश और समाज पीछे छूटता ही नज़र आता है। अगर, वह वास्तव में बदल रहे हैं, तो उन्हें इशारों में भी ऐसी बात कहने से बचना चाहिए। आवश्यक हो, तो भी ऐसे द्विअर्थी शब्दों का प्रयोग करने से परहेज करें, पर जिस प्रकार उन्होंने बेवजह बात जोड़ी, उससे नहीं लगता कि वह बदल रहे हैं। इसके साथ डर यह भी है कि लोकसभा चुनाव के दौरान वह ऐसी शब्दावली का प्रयोग और बढ़ा न दें।
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