मनुष्य को समझ पाना बेहद मुश्किल माना जाता है। दशकों साथ रात-दिन गुजारने वाले भी एक-दूसरे को अक्सर नहीं समझ पाते, लेकिन व्यक्ति शायर है, कवि है, लेखक है, कुल मिला कर रचनाकार है, तो उसकी रचनाओं के माध्यम से उस व्यक्ति को बड़ी ही सरलता और सहजता से समझा जा सकता है। आम व्यक्ति मन से सोचता है, मन से बात करता है, सो कई बार समझ में नहीं आता, लेकिन रचनाकार हृदय से सृजन करता है, इसलिए दिखावट के लिए कोई जगह बचती ही नहीं है। चाहते और न चाहते हुए भी रचनाओं में रचनाकार की सच्ची भावनायें कहीं न कहीं शब्द का रूप ले ही लेती हैं, इसीलिए रचनाकारों के शब्द असरदार होते हैं, जो पाठक से भी एक अटूट संबंध स्थापित कर देते हैं, यही संबंध संबंधित बना देता है। संबंध दिखता नहीं है, महसूस किया जाता है, लेकिन संबंध में गाँठ लग जाती है, तो वह संबंधित बन कर दिखने भी लगता है। संबंधित को छूआ भी जा सकता है और महसूस भी किया जा सकता है, यह परम आनंद देने वाली अवस्था है, जिसे जी रहे हैं पवन कुमार।
जी हाँ, साहित्य के आकाश पर ध्रुव तारे की तरह चमकते हुए तारे का नाम है पवन कुमार, जो धरती पर रह कर आम लोगों को तपती दोपहरी में समीर बन कर सहला भी रहे हैं। आईएएस पवन कुमार वर्तमान में बदायूं के जिलाधिकारी हैं, यह बाद में इसलिए बताया कि आईएएस होने से बहुत बड़ी बात है रचनाकार होना। मैनपुरी के शीला देवी और डीपी सिंह के पुत्र के रूप में 8 अगस्त 1975 को जन्मे पवन कुमार ने आगरा के सेंट जॉन्स कॉलेज से बीएससी, लॉ के बाद रूरल डेवलपमेंट में मास्टर डिग्री हासिल की है, इसके बाद वे वर्ष- 2008 में भारतीय प्रशासनिक सेवा का अंग बने।
कहा जाता है कि लगन और मेहनत से कोई भी डिग्री हासिल की जा सकती है, लेकिन रचना चाह कर भी नहीं कर सकते, रचनाकार चाहने से नहीं बन सकते, रचनाकार लगन और मेहनत से भी नहीं बना जा सकता। रचनाकार पैदा ही होता है। पवन कुमार भी चाहने, लगन और मेहनत से रचनाकार नहीं बने हैं, वे भी स्वाभाविक रचनाकार हैं, उन्हें स्वयं भी बचपने में ही रचनाकार होने का अहसास हो गया था, तभी कठिन पढ़ाई के बीच में ही सृजन करने लगे। भारतीय प्रशासनिक सेवा का हिस्सा बनने के बाद महत्वपूर्ण दायित्व का निर्वहन करते हुए भी उनका सृजन का क्रम अनवरत जारी रहा, जिसका सुखद परिणाम आया “वाबस्ता” के रूप में।
पवन कुमार का “वाबस्ता” नाम से गजलों और नज्मों का संग्रह वर्ष- 2012 में प्रकाशित हुआ, जिसका वर्ष- 2016 में द्वितीय संस्करण भी प्रकाशित हो चुका है। “वाबस्ता” के पृष्ठ 79 पर “फिर भी कितना अनजान हूँ तुमसे” शीर्षक के हवाले पवन कुमार की एक नज़्म है कि
फिर भी कितना अनजान हूँ तुमसे।
ख़्वाबों में ख्यालों में
शिकवों में गिलों में
मेंहदी में फूलों में
सावन के झूलों में
झरनों के पानी में
नदियों की रवानी में
तुम ही तुम हो
फिर भी कितना अनजान हूँ तुमसे।
पतझड़ में सावन में
दिल के किसी आंगन में
झूमती इन हवाओं में
गूंजती इन सदाओं में
ख़ामोशी में बेहोशी में
और तो और सरगोशी में
तुम ही तुम हो
फिर भी कितना अनजान हूँ तुमसे।
रचनाकार के रूप में “अब के बरस” शीर्षक से पृष्ठ- 81 पर मौजूद नज़्म पवन कुमार को शिखर पर ले जाकर स्थापित करती है। लिखा है कि
तमाम रात
वे कतरे
जो गिरते हैं छतों पर
सूरज की चमकती किरनें
जिन्हें सफेद सोना बना देती हैं
उनके जेवर पहन कर देखो।
वे तमाम ख़्वाब
जो सोते-जागते देखते हैं
या खुदा
सब के सब ताबीर हो जायें।
तमाम रिश्ते,
जो बेइंतहा खूबसूरत हो सकते थे
मगर वक्त ने
जिन्हें ज़र्द कर दिया।
तमाम सूरज
जो रोशनी बिखरा सकते थे
मगर कभी धुंध ने उन्हें जमीं पर आने न दिया,
वे सब चमकें,
जमीं पर उतरें,
ज़र्रों को चूमें-सहलायें
वाकये हादसे सदमों
से घिरी कायनात
फिर हंसे-मुस्कराये,
खेतों में पीले हरे
रंग फिर चमकें
हर घर में गेहूं चावल की गंध महके,
तमाम सियासी खेल जो मन्दिर में
अजान नहीं होने देते
और मस्जिद में दिया नहीं जलने देते
दौर-ए-गुज़िश्ता की बात हो जायें
हर ओर खिलें प्यार की फसलें
यही उम्मीद अब दिल में रख लें …
अब के बरस
हाँ अब के बरस।
रचनाकार अपने बहुत अंदर छुपे भाव को रोक नहीं पाया। “उसे बदलना ही था” शीर्षक से पृष्ठ- 97 पर लिखा है कि
उसे
बेवफ़ा होना ही था,
मुझसे
सिलसिला तोड़ना ही था
कोई राब्ता रखना ही न था,
दो कदम साथ चलना ही न था
एक रोज उसे बदल ही जाना था
और
एक रोज मुझे संभल ही जाना था।
वफ़ा की राह में वो
चल न पायेगा, मुझे यकीन था,
बाद इसके भी
मगर एक एक लम्हा उसके साथ का
बहुत हसीन था!
जरूरी नहीं कि
जिन्दगी में
हर एक काम
मुनाफ़े के लिए ही किया जाये
सिर्फ अपने फायदे के लिए ही किया जाये
मैं जानता हूँ कि
उसे न ठहरना था और न वो ठहरा
वो पहले से बादल था मैं पहले से सहरा
मगर
आज भी सोचता हूँ कि
सारी खामियां थीं उसमें,
मगर वो फिर भी मेरा हुआ था
एक पल के ही लिए सही
उसने मेरे दिल की तह को छूआ था
यही तसल्ली है
यही भरम
वह किसी का न हो सकता था,
न मेरा हुआ
मैं यह सोचता हूँ
मैं शिद्द्त से सोचता हूँ
“एक रोज उसे बदल ही जाना था
एक रोज मुझे संभल ही जाना था।”
रचनाकार के अंदर का पिता जगता है, तो बेटी ईशी के लिए “अरबी आयतें और ईशी” शीर्षक से लिखता है कि
दो सौ साठ
रातों के वे तमाम ख़्वाब
जिनको हमने सोते-जागते
उठते-बैठते
ख्यालों में या बेख्याली में देखा था
आज पूरे सात सौ तीस रोज के हो गये हैं
ख़्वाबों को बुनना
और बुनने के बाद
उन्हें पहनना
कितना ख़ुशगवार है
आज तुम सात सौ तीस रोज
की हो गई हो
लगता है
चाँद टुकड़े, टुकड़े होकर
तुम्हारे “दांतों” में तब्दील हो गया है
तुम “चॉक” से “स्लेट” पर
जब आड़ी-तिरछी लाइनें खींचती हो
शायद,
अमरुद
या शायद शेर
या शायद हाथी
या शायद घोड़ा
या ऐसा ही कुछ और
बनाने के लिए
तो बेशक
न वो अमरुद होता है
न शेर, न घोड़ा और न हाथी
पर यह महसूस हो जाता है
ताजमहल की दीवारों पर
लिखी तमाम अरबी आयतों की
तरह
जिन्हें मैं पढ़ नहीं पाता
पर देखने में एक
मुकद्दस सा एहसास पाता हूँ
वही एहसास तुम्हारी
इन बेतरतीब-आड़ी-तिरछी
लाइनों में पाता हूँ।
महिला दिवस के अवसर पर रचनाकार का ध्यान महिलाओं की ओर चला जाता है, तो “दर्द कौन समझेगा” शीर्षक से पृष्ठ- 108 पर एक रचना जन्म लेती है कि
तूने बख्शा तो है
मुझे
खुला आसमां
साथ ही दी हैं
तेज हवायें भी
हाथों से हल्की जुम्बिश
देकर जमीं से उठा
भी दिया है।
मगर
ये सब कुछ बेमतलब
सा लगता है,
ये आसमां, ये हवायें, ये
हल्की सी जुम्बिश।
काश!
तूने ये कुछ न दिया होता
बस मेरी कमान खोल दी
होती,
एक धागा है कि
जिसने बदल दिए हैं
मेरी आज़ादी के मायने,
डोर से बंधी पतंग का
दर्द कौन समझेगा।
नई दिल्ली स्थित प्रकाशन संस्थान द्वारा प्रकाशित “वाबस्ता” में कोहिनूर से भी ज्यादा कीमती पवन कुमार की अन्य तमाम रचनायें सुरक्षित हैं, जो निर्मल दरिया की तरह बहती रहेंगी, जहाँ तक पहुंचेगीं, वहां तक संबंध स्थापित करती रहेंगी और “वाबस्ता” के रूप में अजर-अमर रहेंगी।
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