देश की मूल विचारधारा के विपरीत विचारधारा के शासक हों, तो देश को सिर्फ राजनैतिक और आर्थिक नुकसान ही नहीं होता, बल्कि मानसिक और आत्मिक रूप से इतनी बड़ी क्षति होती है, जिसकी भरपाई किसी भी तरह की ही नहीं जा सकती। भारत पर विदेशियों का कब्जा रहा। गुलामी के उस दौर में भारतीय प्रतिभाओं के साथ अन्याय हुआ और अन्याय भी सिर्फ शारीरिक नहीं, बल्कि उनके आविष्कारों को किसी और के नाम से प्रचारित करा दिया गया। ज्ञान-विज्ञान को लेकर भारत प्राचीन काल से ही शीर्ष पर रहा है, लेकिन अधिकांशतः इतिहास को बदल कर सामने रख दिया, जिससे इतिहास के पन्नों के साथ विश्व में भारत गरीबों, भूखों और मूर्खों का देश प्रचारित होता चला गया। इससे भी बड़े आश्चर्य और दुःख की बात यह है कि भारत स्वतंत्र हुआ, तो स्वतंत्र भारत की सरकार ने कभी खंडन नहीं किया कि भारतीय मूर्ख नहीं, बल्कि विद्वान् रहे हैं, स्वाभिमानी रहे हैं, स्वावलंबी रहे हैं। अब तक इस ओर ध्यान तक नहीं दिया गया, क्योंकि भारत स्वतंत्र भले ही हो गया, लेकिन व्यवस्था विदेशी विचारधारा के लोगों के ही हाथों में रही, जिससे युवा पीढ़ी अतीत को लेकर गौरव की अनुभूति नहीं कर पा रही। जिस युवा के हृदय में अपने पुरुखों के प्रति सम्मान नहीं होगा, वो युवा और वो देश विकास नहीं कर सकता, ऐसे में बेहद आवयश्क है कि सरकार अतीत के पन्नों पर जमी धूल को साफ कर युवाओं के सामने सच्चाई रखे।
शून्य के आविष्कार को लेकर अंग्रेजों ने श्रेय क्यूं नहीं लिया? शायद, बात बहुत अधिक पुरानी नहीं थी और जन-जन तक पहुंच चुकी थी, इसीलिए अंग्रेज इस सत्य को मिटाने का साहस नहीं दिखा पाये और शून्य के आविष्कार का श्रेय भारतीय के ही नाम रहा, लेकिन वायरलेस सिस्टम के आविष्कार का श्रेय जी. मार्कोनी को दे दिया, जबकि भारत में फादर ऑफ रेडियो के नाम से प्रख्यात डॉ. जगदीश चंद्र बसु ने इसका आविष्कार 1895 में ही कोलकाता में कर दिया था, इसी तरह टेस्ट ट्यूब बेबी की कल्पना का श्रेय आर. जी. एडवर्ड को जाता है, जबकि कोलकाता में ही भारतीय चिकित्सक सुभाष मुखोपाध्याय ने विदेशियों से अलग विधि द्वारा टेस्ट ट्यूब बेबी का जन्म करवाया था, लेकिन भारत के लोगों ने इस काम के लिए उनकी आलोचना की, जिससे तंग आकर 19 जून, 1981 को उन्होंने आत्महत्या कर ली। गणित में एक प्रमेय का श्रेय गणितज्ञ पाईथागोरस को जाता है, जबकि इस प्रमेय को प्राचीन भारतीय विद्वान बोधायन ने बनाया था।
ई-मेल का आविष्कार भारतीय मूल के अमेरिकी साइंटिस्ट शिवा आयादुराई ने किया था। आयादुराई का जन्म मुंबई के एक तमिल परिवार में हुआ था। सात वर्ष की आयु में वह अपने परिवार के साथ अमेरिका चले गये। अमेरिकी सरकार ने 30 अगस्त 1982 को आयादुराई को आधिकारिक रूप से ई-मेल की खोज करने वाले के रूप में मान्यता दी और 1978 की उनकी खोज के लिये पहला अमेरिकी कॉपीराइट दिया, लेकिन रे टिमलिंसन ई-मेल के आविष्कार को लेकर दावा ठोंकते रहे हैं।
इसी तरह हवाई जहाज के बनाने का श्रेय भी भारतीय से छीन लिया गया। हवाई जहाज बनाने का श्रेय ऑरविल व विलबर नाम के अमेरिकी राइट बंधुओं को दिया जाता है। बताया जाता है कि उनके बनाये हवाई जहाज ने 17 दिसंबर 1903 को पहली सफल उड़ान भरी। राइट बंधुओं के दावे को फ्रांस की एक कंपनी ने चुनौती भी दी थी और इस तरह का आविष्कार पहले करने का दावा किया, लेकिन 1908 में अमेरिका ने राइट बंधुओं के आविष्कार को मान्यता दे दी, पर भारत की ओर से ऐसा दावा आज तक नहीं किया गया, जबकि राइट ब्रदर्स से आठ साल पहले वर्ष 1895 में शिवकर बापूजी तलपड़े नाम के एक भारतीय नागरिक ने मुंबई की चौपाटी के नजदीक सार्वजनिक तौर पर हवाई जहाज को उड़ाया था।
शिवकर बापूजी तलपड़े मुम्बई स्कूल ऑफ आर्ट्स के अध्यापक और वैदिक विद्वान थे। उन्होँने हवाई जहाज का निर्माण किया, जिसे मरुतसखा नाम दिया। मरुतसखा नाम के हवाई जहाज की प्रथम उड़ान का प्रदर्शन मुंबई चौपाटी पर तत्कालीन बड़ौदा नरेश सर शिवाजी राव गायकवाड़ और लालजी नारायण के सामने किया गया था। हवाई जहाज पन्द्रह सौ फुट ऊँचाई तक गया था, जबकि राइट बंधुओं के हवाई जहाज ने केवल एक सौ बीस फुट ऊंची उड़ान भरी थी। बाद में बापूजी तलपड़े की पत्नी का निधन हो गया, तो उन्होंने इस दिशा में कार्य बंद कर दिया। 17 दिसंबर 1918 को उनका निधन हो गया, जिसके बाद आविष्कार सम्बन्धी कागज़ और सामान उनके परिजनों ने अंग्रेजों को बेच दिया, जिससे उनके नाम के साथ वह आविष्कार भी इतिहास में दफन हो गया। इस विषय पर हाल ही में एक फिल्म भी बनी है, जिसका नाम हवाईजादा है, यह फिल्म बहुत हद तक सच को सामने लाने में सफल रही है।
इस सबके बीच विशेष ध्यान देने की बात यह है कि शिवकर बापूजी तलपड़े ने हवाई जहाज वेद का अध्ययन कर के बनाया, इससे यह सिद्ध होता है कि विमान बनाने की विधि भारत के पास हजारों साल पहले से थी। प्राचीन भारतीय संत अगस्त्य और भारद्वाज ने ईसा पूर्व ही विमान बनाने की तकनीक का विकास कर लिया था। इन ऋषियों के द्वारा रचित श्लोकों में विमान संबंधी विधियों का उल्लेख है, साथ ही रामायण और महाभारत के साथ चारोँ वेद, युक्तिकरालपातु, मायाम्तम्, शतपत् ब्राह्मण, मार्कण्डेय पुराण, विष्णु पुराण, भागवतपुराण, हरिवाम्सा, उत्तमचरित्र ,हर्षचरित्र, तमिल पाठ जीविकाचिँतामणि व अन्य कई वैदिक ग्रंथोँ मेँ भी विमानोँ के बारे मेँ उल्लेख आता है। वैदिक साहित्य के अनुसार सतयुग मेँ विमान मंत्र शक्ति से उड़ते थे, त्रेता मेँ मंत्र एवं तंत्र की शक्ति से उड़ते थे, द्वापर युग मेँ मंत्र-तंत्र-यंत्र से विमान उड़ा करते थे और कलियुग मेँ मंत्र व तंत्र का ज्ञान न होने के चलते विमान सिर्फ यंत्र की शक्ति से उड़ते हैं।
सतयुग मेँ मंत्रिका विमान 26 प्रकार के थे, त्रेतायुग मेँ तंत्रिका विमान 56 प्रकार थे एवं द्वापरयुग में कृतिका विमान 26 प्रकार थे, इन सबका उल्लेख आचार्य महर्षि भारद्वाज के ग्रंथ “विमानिका” में विस्तार से किया गया है। वैज्ञानिक इस ग्रंथ को ईसा से चार सौ वर्ष पूर्व का मानते हैं, इस ग्रंथ का अनुवाद अंग्रेज़ी भाषा में भी हो चुका है। इस ग्रंथ में महर्षि भारद्वाज के अलावा 97 अन्य विमानाचार्यों का वर्णन है। इस ग्रंथ में ही उल्लेख मिलता है कि सर्व प्रथम पाँच प्रकार के विमानों का निर्माण हुआ, जो ब्रह्मा, विष्णु, यम, कुबेर और इन्द्र के पास थे, इसके बाद रुकमा बना, जो नुकीले आकार व स्वर्ण रंग का था। दूसरे नंबर पर सुन्दर: नाम का विमान बनाया गया, जो त्रिकोण के आकार का और रजत (चाँदी) के रंग का था। तीसरे नंबर पर त्रिपुरः नाम के विमान बने, जो तीन तल वाले शंक्वाकार विमान थे, इसके बाद शकुनः नाम के विमान बनाये गये, जो पक्षी के आकार के थे और यह अंतर्राक्षीय विमान थे, अर्थात अन्य ग्रहों पर जाते थे। ऊर्जा के बारे में भी उल्लेख है कि शकत्युदगम विमान विद्युत से चलते थे। धूम्र विमान धुआं व वाष्प से चलते थे। अशुवाह विमान सूर्य की किरणों से चलते थे। शिखोदभग विमान पारे से चलते थे। तारामुख विमान चुम्बकीय शक्ति से चलते थे। मरूत्सखा विमान गैस से चलते थे। भूतवाहक विमान जल, अग्नि तथा वायु से चलते थे। देश, काल और दूरी के अनुसार विमानों का अलग-अलग उपयोग किया जाता था।
विमानों के आकार, प्रकार के साथ संपूर्ण विधि वेदों में है, जिसका अध्ययन कर समझा जा सकता है। इसके अलावा तमाम प्राचीन भवनों और शहरों के निर्माण को लेकर भी विवाद हैं, जिनको लेकर सरकार को स्थिति स्पष्ट करनी चाहिए और संपूर्ण सच जनता के सामने रखना चाहिए। हालांकि विवाद की स्थिति उत्पन्न होगी, लेकिन युवाओं को जब पता चलेगा कि उनके पूर्वजों ने क्या-क्या किया है, तो इससे निश्चित ही लाभ होगा। अपने पुरखों के कार्यों को जानने से युवाओं में जोश आयेगा, उन्हें और बेहतर कार्य करने की प्रेरणा मिलेगी, जिससे संपूर्ण राष्ट्र का भला होगा।
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