दिल्ली के विधान सभा चुनाव में आम आदमी पार्टी को मिले प्रचंड बहुमत की समीक्षा कई तरह से की जा रही है। कोई भाजपा की हार बता रहा है, कोई नरेंद्र मोदी की लहर समाप्त मान रहा है, तो कोई कांग्रेस पर व्यंग्य करता नजर आ रहा है। गंभीरता से मंथन किया जाये, तो आम आदमी पार्टी की जीत भाजपा की ही नीति अपनाने से हुई है, जिस पर वामपंथी विचारधारा के लोगों का ध्यान ही नहीं जा रहा है।
दिल्ली में चुनाव प्रचार के दौरान अरविंद केजरीवाल ने एक भी ऐसा बयान नहीं दिया, जिससे बहुसंख्यक हिन्दुओं की भावना आहत होती। अरविंद केजरीवाल ने ऐसा कुछ नहीं कहा, जिससे यह संदेश जाता कि वे मुस्लिम वर्ग के ज्यादा हितैषी हैं, साथ ही जामा मस्जिद के इमाम ने आम आदमी पार्टी के पक्ष में फतवा जारी किया, तो अरविंद केजरीवाल ने खुल कर उनका फतवा ठुकरा दिया। भारतीय राजनीति में यह एक बहुत बड़ा परिवर्तन आया है, जो पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान शुरू हुआ था। इससे पहले के चुनावों पर नजर डालें, तो मुस्लिम मतदाताओं को लुभाने की राजनैतिक दलों में प्रतियोगिता होती नजर आती थी। हालात बहुसंख्यकों के इतने विपरीत चले गये थे कि उनकी भावनाओं की चिंता किसी को नहीं रहती थी, इसीलिए हिंदू मतदाता स्वयं को राजनैतिक तौर पर अनाथ महसूस करने लगे थे, साथ ही चुनाव के दौरान मुस्लिम मतदाता स्वयं को लेकर विशेष नागरिक जैसी अनुभूति करते नजर आते थे।
राजनैतिक दलों के घोषणा पत्रों में विकास के वादे हिन्दुओं को लुभाने के लिए होते थे और मुस्लिम मतदाताओं के लिए व्यक्तिगत लाभ के वादे रहते थे, जिस पर अब अंकुश लगने लगा है। अब समान ही नहीं, बल्कि राजनैतिक दल हिन्दुओं को अधिक सम्मान देने लगे हैं। दिल्ली में वर्ष- 2014 में हुए विधान सभा चुनाव में मुस्लिम मतदाताओं को लुभाने के लिए अरविंद केजरीवाल विभिन्न मुस्लिम नेताओं के द्वार पर चक्कर लगाते नजर आये। उत्तर प्रदेश के शहर बरेली में रहने वाले विवादित मुस्लिम नेता तौकीर रजा के पास कई बार आये, लेकिन इस चुनाव में उन्होंने ऐसा कुछ नहीं किया, साथ ही इमाम के फतवे को नकार दिया, यह भारतीय राजनीति में आया बहुत बड़ा परिवर्तन है, जिसे वामपंथी महसूस नहीं कर पा रहे हैं।
नरेंद्र मोदी के राष्ट्रीय क्षितिज पर छाने के बाद भारतीय राजनीति में यह परिवर्तन आया है। आजादी के बाद से अब तक बहुसंख्यक मतदाता के रूप में स्वयं को दोयम दर्जे का नागरिक महसूस करते आ रहे थे, तभी नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में आसानी से एकजुट हो गये। हिन्दुओं की इस एकजुटता को अरविंद केजरीवाल लगातार महसूस कर रहे होंगे, तभी उन्होंने ऐसा कुछ नहीं किया, जिससे हिंदू वर्ग नाराज हो जाये और उन्हें राजनैतिक तौर पर नुकसान उठाना पड़े। इस तरह का ध्यान अब तक भाजपा और नरेंद्र मोदी रखते रहे हैं, लेकिन केंद्र में सत्ता पाने के बाद नरेंद्र मोदी विचारधारा को लेकर थोड़े बेपरवाह हुए हैं। वे सिर्फ विकास के मुददे पर चुनाव में गये और उससे पहले बराक ओबामा को गणतंत्र दिवस समारोह में बुला कर स्वयं को जरूरत से ज्यादा उदार दिखाने का प्रयास किया, जिससे हिंदू विचारधारा के मतदाताओं में मायूसी आई और उस मायूसी का लाभ अरविंद केजरीवाल को सीधा मिला। हालांकि भाजपा का वोट प्रतिशत कम नहीं हुआ है, लेकिन आम जनमानस के बीच कई प्रतिशत मतदाता ऐसे भी होते हैं, जो विजयी नजर आ रहे दल के पक्ष में मतदान कर आते हैं। ऐसे उत्साह की कमी भाजपाईयों में शुरू से ही रही, क्योंकि उनका नेता मूल विचारधारा से स्वयं को अलग करता जा रहा था। इसके अलावा भाजपा ने दूसरी बड़ी गलती किरण बेदी को मुख्यमंत्री पद के प्रत्याशी के रूप में पेश कर के की। एक ओर अरविंद केजरीवाल और दूसरी ओर किरण बेदी सीधे मुकाबले में आ गईं, ऐसे में दिल्ली के मतदाताओं ने नकली आम आदमी पार्टी (किरण बेदी ) की जगह असली आम आदमी पार्टी (अरविंद केजरीवाल) को चुनना पसंद किया। तीसरा बड़ा कारण भी किरण बेदी ही हैं, उन्हें मुख्यमंत्री पद का प्रत्याशी बनाने से दिल्ली के अधिकाँश नेता नाराज हो गये, जिससे उनका उत्साह चला गया और कुछ ने आम आदमी पार्टी को ही जिताने में मदद की। वामपंथी लोकसभा चुनाव की तरह ही दिल्ली चुनाव की भी गलत समीक्षा कर रहे हैं, वे जनमानस के बीच ऐसा भ्रम फैलाने का प्रयास कर रहे हैं कि नरेंद्र मोदी की लहर समाप्त हो चुकी है, जबकि सच्चाई यह है कि जिस विचारधारा के चलते नरेंद्र मोदी की लहर आई थी, उस विचारधारा को अरविंद केजरीवाल ने स्वीकार कर लिया, जिससे उनकी लहर आ गई। लहर नरेंद्र मोदी की नहीं, बल्कि विचारधारा की थी। दिल्ली विधान सभा चुनाव इस बात के स्पष्ट संकेत हैं कि अब जो बहुसंख्यकों की भावनाओं का ध्यान नहीं रखेगा, उसका राजनैतिक नुकसान होना निश्चित है।
पिछले लोकसभा चुनाव परिणामों पर एक बार फिर नजर डालें, तो पायेंगे कि नरेंद्र मोदी के नाम की लहर उन राज्यों में अधिक कामयाब रही, जिन राज्यों के मुख्यमंत्रियों की नज़र में मुस्लिम प्रथम नागरिक ही नहीं, बल्कि सर्वोपरि रहे हैं। इस मामले में उत्तर प्रदेश सब से आगे रहा है, इसीलिए नरेंद्र मोदी के नाम की लहर ने सब से अधिक असर इसी राज्य में दिखाया। उत्तर प्रदेश के हालात इतने बदतर हो चले थे कि यहाँ बहुसंख्यक वर्ग स्वयं को दोयम दर्जे का नागरिक महसूस करने लगा था। लोकसभा चुनाव के परिणामों की तरह ही दिल्ली विधान सभा के चुनाव परिणामों का भी यही अर्थ है कि जो बहुसंख्यक वर्ग का अपमान करेगा, उसे अब सत्ता नहीं मिलनी।