बांग्लादेशी लेखिका तस्लीमा नसरीन कट्टरपंथ की कट्टर विरोधी हैं, वह नारीवाद की प्रखर समर्थक हैं, वह प्रगतिशील विचारधारा के लिये विश्व विख्यात हैं। चर्चित और विवादित उपन्यास लज्जा के कारण बांग्लादेश में तस्लीमा नसरीन के विरुद्ध फतवा जारी किया गया था, जिसके चलते वह भारत में निर्वासित जीवन बिता रही हैं। अपने विचारों के चलते व्यक्तिगत तौर पर तस्लीमा नसरीन ने जितना कुछ पाया है, उससे कहीं अधिक गंवा भी दिया है। परिवार, दांपत्य और नौकरी के साथ एक स्वतंत्र जीवन तक दांव पर लग चुका है।
25 अगस्त 1962 को उस वक्त पाकिस्तान के शहर मयमनसिंह में जन्मी तस्लीमा के विचारों और शब्दों पर मानवीय दृष्टिकोंण रखने वाले इंसान को शायद ही आपत्ति होगी। मयमनसिंह मेडिकल कॉलेज से 1986 में चिकित्सा स्नातक की डिग्री लेने के बाद सरकारी डॉक्टर के रूप में सेवायें दे चुकी तस्लीमा की विचारधारा प्रशंसनीय कही जा सकती है, लेकिन यह सब गुण भारत में रहने के लिए काफी नहीं कहे जा सकते।
यूं तो सीमायें मानवीय सोच के चलते हैं। विश्व भर के नागरिकों के अधिकार समान ही होने चाहिए, लेकिन दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि 21वीं सदी का एक दशक पार करने के बावजूद अभी तक विश्व इस सोच की ओर बढ़ता तक नज़र नहीं आ रहा, ऐसे में नागरिकों की राष्ट्रीय सोच होना स्वाभाविक है और अपने-अपने राष्ट्रों को लेकर की जा रही चिंतायें भी सही हैं।
तस्लीमा नसरीन के भारत में रहने को लेकर सवाल उठते रहे हैं। तस्लीमा भारत में सुरक्षित और शांति की अनुभूति करती हैं, लेकिन तस्लीमा को सुरक्षा और शांति देने का कार्य भारतीय गणराज्य का नहीं है। जिस बांग्लादेश के निर्माण में भारत ने अपनी शाक्ति झोंक दी थी और उसे बहुत कुछ खोने के बाद मित्र बना पाया था, उस बांग्लादेश से भागी लेखिका को भारत शरण क्यूं दे और अगर, शरण दे भी, तो इसमें भारत का क्या हित है?
भारत सरकार ने हाल ही में तस्लीमा नसरीन के रेजिडेंट वीजा की तिथि आगे न बढ़ाने का निर्णय लिया, उन्हें दो महीने के अंदर भारत छोड़ने का भी निर्देश दे दिया गया। भारत छोड़ने की उल्टी गिनती 1 अगस्त से शुरू होने वाली थी, लेकिन अगले ही दिन तस्लीमा नसरीन ने भारत के गृहमंत्री राजनाथ सिंह से मुलाक़ात कर ली और फिर गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने उन्हें रेजिडेंट वीजा दे दिया। इस घटना को लेकर देश भर के लोगों के मन में सवाल उमड़-घुमड़ रहे हैं कि सरकार ने पहले मना क्यूं किया और मना करने के बाद वीजा जारी क्यूं कर दिया? वर्ष 2004 से भारत सरकार तस्लीमा नसरीन को रेजिडेंट वीजा दे रही थी, तो हाल-फिलहाल भारत सरकार ने उसे निरस्त क्यूं किया? भारत सरकार इस तरह के निर्णय क्या सोच-विचार के बिना ले लेती है और फिर उन्हें सार्वजनिक भी कर देती है? सोच-विचार के बाद लिए गये निर्णय को क्या भारत सरकार यूं ही बदल भी देती है? भारत सरकार को तस्लीमा नसरीन को वीजा देने के प्रकरण में स्पष्ट करना चाहिए कि उसने पहले वीजा देने से मना क्यूं किया और मना करने के बाद पुनः तत्काल जारी क्यूं किया?
उदारता भारतीय संविधान के प्राण कहे जा सकते हैं, लेकिन यह उदारता पहले भारतीय नागरिक के लिए होनी चाहिए, लेकिन तस्लीमा नसरीन की तरह ही विश्व विख्यात भारतीय चित्रकार मक़बूल फ़िदा हुसैन भारत छोड़ कर चले गये थे। मक़बूल फ़िदा हुसैन सिर्फ भारतीय नागरिक नहीं थे, वे सिर्फ विश्व विख्यात चित्रकार ही नहीं थे। भारत सरकार ने उन्हें वर्ष 1955 में पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित किया था। 1973 में उन्हें पद्मभूषण से सम्मानित किया गया था। वर्ष 1986 में उन्हें राज्यसभा में मनोनीत किया गया। 92 वर्ष की उम्र में उन्हें केरल सरकार ने राजा रवि वर्मा पुरस्कार से सम्मानित किया था। भारत सरकार ने वर्ष 1991 में पद्म विभूषण से भी सम्मानित किया था। वह 1971 में साओ पाओलो आर्ट बाईनियल में पिकासो के साथ विशेष आमंत्रित अतिथि ही नहीं बने, बल्कि फ़ोर्ब्स ने उन्हें भारत का पिकासो कहा था। 17 सितंबर 1955 को गरीब परिवार में जन्मे मक़बूल फ़िदा हुसैन भारतीय चित्रकारों में सबसे कीमती नगीने थे।
मक़बूल फ़िदा हुसैन ने हिन्दुओं के देवी-देवताओं पर पेंटिंग्स बनाई, जिसके विरोध के चलते उन्हें वर्ष 2006 में देश छोड़ना पड़ा और लंदन में जाकर बस गये। मक़बूल फ़िदा हुसैन जैसे नगीने को कौन नहीं अपनाना चाहेगा। वर्ष 2010 में कतर ने उनके सामने नागरिकता का प्रस्ताव रखा, जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया, लेकिन नागरिकता से जन्मभूमि की अनुभूति थोड़े ही की जा सकती है। अंततः 9 जून 2011 को उन्होंने लन्दन से ही दुनिया को अलविदा कह दिया और भारतीय गणराज्य के दामन पर एक ऐसा धब्बा लगा गये, जो हमेशा स्पष्ट चमकता रहेगा।
विषय यह नहीं है कि मक़बूल फ़िदा हुसैन सही थे या गलत। आशय यह है कि धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र का उनके साथ क्या व्यवहार था। जिस डर, जिस चिंता और जिस वातावरण के चलते तस्लीमा भारत में निर्वासित जीवन जीने को मजबूर हैं, वह सब भारत में भी तो है, ऐसे में भारत तस्लीमा को रेजिडेंट वीजा देकर महानता की अनुभूति कैसे कर सकता है?
मक़बूल फ़िदा हुसैन की पेंटिंग्स अंग्रेजों के बीच और भी ज्यादा लोकप्रिय थीं। वह भारत छोड़ने के बाद लंदन में जाकर बसे, जहाँ न हिंदू कट्टरपंथी हैं और न मुस्लिम कट्टरपंथी हैं, लेकिन तस्लीमा भारत में हैं, जहाँ हिंदू और मुस्लिम कट्टरपंथी हावी नहीं हैं, तो कमजोर भी नहीं हैं। तस्लीमा पर फतवा इस्लाम के अपमान को लेकर है और इस्लाम के अनुयायी सिर्फ बांग्लादेश में ही नहीं हैं। बांग्लादेश से ज्यादा अनुयायी भारत में हैं, जो भारत के नागरिक हैं और अपने नागरिकों के विरुद्ध जाकर तस्लीमा को भारत में रहने की अनुमति देना भारत सरकार का कोई समझदारी का निर्णय नहीं कहा जा सकता।
तस्लीमा नसरीन का भारत में भी अपमान हुआ है। भविष्य में भी उनके साथ कोई घटना न घटे, ऐसा नहीं कहा जा सकता, ऐसी परिस्थितियों में अगर, तस्लीमा के साथ कुछ अनहोनी हो जाये, तो वैश्विक स्तर पर भारत की साख को गहरा आघात पहुंचेगा। अपने वरिष्ठ नागरिक मक़बूल फ़िदा हुसैन को सम्मान न दिला पाने के साथ यह भी कलंक ही होगा कि निर्वासित तस्लीमा को भी भारत सुरक्षा देने में असमर्थ साबित हुआ।
तस्लीमा के लेखन पर नज़र डालें, तो वे नारीवादी हैं, यहाँ सवाल उठता है कि अगर, पुरुषवाद एक दकियानूसी विचारधारा है, तो नारीवाद महान कैसे हो गया? वाद ही अपने में एक अवगुण है। सामाजिक समरसता के लिए जितना घातक पुरुषवाद है, उससे कम नुकसानदायक नारीवाद भी नहीं कहा जा सकता। बैद्धिक होने का तात्पर्य इस तरह के वाद को बहुत पीछे छोड़ देना होता है, लेकिन वे नारीवाद से पूरी तरह जुड़ी हुई हैं, इस सोच को श्रेष्ठ नहीं कहा जा सकता। हर घटना का अपना एक सच होता है और उस सच के साथ खड़े होना ही मानवीयता है। किसी भी तरह के वाद मानवीय दृष्टिकोंण को प्रभावित करते हैं।
अब साहस की बात करते हैं। एक व्यक्ति ने कहा कि मेरे दादा शेर से लड़े थे। दूसरे ने पूछा कि फिर क्या हुआ? पहले ने कहा कि शेर मार कर खा गया। तस्लीमा का साहस भी कुछ ऐसा ही है। अंतर सिर्फ इतना है कि शेर उन्हें मार कर खा नहीं पाया है। तस्लीमा डट कर मुकाबला करतीं, तो अब तक परिणाम आ गया होता, लेकिन उनकी मानसिकता लड़ने की नहीं है। छेड़ कर भागने की थी। वे बांग्लादेश और पाकिस्तान में कुख्यात हैं, लेकिन भारत में वह लोकप्रिय हैं।
भारत का मीडिया ही नहीं, बल्कि समूचा तंत्र उन्हें विशिष्ट नागरिक जैसा सम्मान देता है। उनकी किताबें भारत में खूब बिकती हैं। उनके लेख भारत में खूब पढ़े जाते हैं। तस्लीमा का भारत में रहने का यही प्रमुख कारण है। इतना सम्मान और धन किसी और देश में मिलने लगे, तो तस्लीमा को वो देश ज्यादा अच्छा लगने लगेगा। बांग्लादेश के हालातों से तस्लीमा वाकई, आहत होतीं, तो बराबर लड़ रही होतीं, लेकिन वे ऐसा नहीं कर रही हैं। वे खुद के विरुद्ध जारी किये गये फतवे का वैश्विक स्तर पर भरपूर लाभ ले रही हैं, जबकि वहां आज भी लाखों तस्लीमायें फंसी हैं। वो सब औरों के लिए जितना लज्जा का विषय है, उतना ही तस्लीमा के लिए भी होना चाहिए। तस्लीमा का सम्मान तब अधिक होता, जब वे मलाला युसूफजई की तरह ही लड़ रही होतीं। चर्चित मलाला मौत के मुंह से वापस आकर आज भी लड़ रही है, इसे कहते हैं साहस।
खैर, सवाल यह है धर्मनिरपेक्ष गणराज्य की भारत सरकार ने तस्लीमा नसरीन का रेजिडेंट वीजा हाल-फिलहाल रदद क्यूं किया और रदद करने के बाद जारी क्यूं किया?