उत्तर प्रदेश में चुनावी वैतरणी से पार निकालने में अखिलेश यादव के व्यक्तित्व पर समाजवादी पार्टी को आशंका है, तो यह निश्चित है कि समाजवादी पार्टी की नैया किसी भी तरह पार नहीं लगने वाली। शीर्ष नेतृत्व महागठबंधन बनाने की दिशा में प्रयास करता नजर आ रहा है, इससे समाजवादी पार्टी को चुनाव में बड़ा नुकसान हो सकता है, लेकिन सपा के साथ गठबंधन में सम्मिलित होने वाले दलों को सीधा लाभ होगा। विधान सभा चुनाव को लेकर उल्टी गिनती शुरू हो चुकी है। उत्तर प्रदेश का वातावरण चुनावी होने लगा है, लेकिन अभी तक अखिलेश यादव, भारतीय जनता पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के बीच में कोई तीसरा दल प्रयास करने के बावजूद चर्चाओं तक में सम्मिलित नहीं हो पा रहा था। अब तक हुए सर्वे रिपोर्ट पर ध्यान दें, तो मुख्यमंत्री के रूप में अखिलेश यादव मतदाताओं की पहली पसंद बने हुए हैं।
पिछले दिनों कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने उत्तर प्रदेश की यात्रा की, उनकी सभाओं में खाट लूटने की घटनायें न हुई होतीं, तो आम जनता को अहसास तक नहीं होता कि राहुल गांधी उत्तर प्रदेश में घूम रहे हैं, उनकी यात्रा को मतदाताओं ने बिल्कुल भी गंभीरता से नहीं लिया, उल्टा आलू की फैक्ट्री और खून की दलाली वाले बयान से अपनी और पार्टी की फजीहत ही करा गये। विधान सभा चुनाव में डमी प्रत्याशियों को भी एक-दो हजार वोट मिल जाते हैं, ऐसे वोट को पार्टी का वोट नहीं कहा जा सकता, इसलिए पिछले चुनाव में कांग्रेस प्रत्याशियों को कितने प्रतिशत वोट मिले, यह मायने ही नहीं रखता। हाल-फिलहाल की बात करें, तो कांग्रेस के प्रत्याशी डमी प्रत्याशियों के आसपास ही रहने की स्थिति में होंगे, ऐसे में कांग्रेस से समझौता करने पर समाजवादी पार्टी को एकतरफा नुकसान होगा।
रालोद प्रमुख अजीत सिंह की बात करें, तो उनके पैरों के नीचे से जमीन पूरी तरह निकल चुकी है। दस से पन्द्रह सीटों पर उनका प्रभाव मान भी लिया जाये, तो उन क्षेत्रों में रालोद के प्रत्याशियों को तो लाभ हो सकता है, वहां सपा के प्रत्याशियों को कोई लाभ नहीं मिलने वाला, ऐसे क्षेत्रों में समाजवादी पार्टी का प्रत्याशी होने पर रालोद वाला वोट भाजपा प्रत्याशियों को जायेगा। शेष हिस्से में भी अजीत सिंह सपा को कोई लाभ नहीं दिला सकते। जेडीएस प्रमुख एच.डी. देवेगौड़ा पर बात करना ही निरर्थक सा है, क्योंकि उत्तर प्रदेश के किसी भी विधान सभा क्षेत्र में उनका कोई प्रभाव नहीं है। राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव उत्तर प्रदेश के चुनाव में भाग न लेने की बात कह चुके हैं, साथ ही उन्होंने स्पष्ट कर दिया है कि वे समाजवादी पार्टी को ही समर्थन देंगे, इसके बावजूद बात करें, तो वे भी उत्तर प्रदेश में न वोट काटने की स्थिति में हैं और न ही सपा को वोट दिलाने की। जदयू के अध्यक्ष शरद यादव भी अब सिर्फ मंचीय नेता ही हैं। उत्तर प्रदेश में उनका भी कहीं कोई प्रभाव नजर नहीं आता, ऐसे में जदयू के लड़ने और समझौता करने से समाजवादी पार्टी को कोई लाभ नहीं होने वाला।
अखिलेश यादव अभी तक भाजपा और बसपा, दोनों पर हावी नजर आ रहे हैं, उन पर हमला करने की विरोधी नेता सोच भी नहीं पा रहे। समाजवादी पार्टी का परिवारिक विवाद सार्वजनिक न हुआ होता, तो विरोधियों के पास मतदाताओं के सामने बोलने के लिए तर्क पूर्ण भाषण तक नहीं होता। गायत्री प्रसाद प्रजापति की छवि समाजवादी पार्टी पर तो हावी नजर आती है, लेकिन उनकी छवि से अखिलेश यादव और सरकार मुक्त दिखती है, इसीलिए अखिलेश यादव आज भी सब पर भारी नजर आ रहे हैं, लेकिन महागठबंधन की चर्चा होने से संभावित दल भी चर्चाओं में आ गये हैं, जिससे अखिलेश यादव को नुकसान हो रहा है। विकास मुददा बन चुका था, जो कमजोर पड़ता जा रहा है। मतदाताओं के बीच ऐसा संदेश जा रहा है कि समाजवादी पार्टी के नेतृत्व को ही अखिलेश यादव द्वारा किये गये कार्यों और उनकी बेदाग छवि पर विश्वास नहीं है और जब पार्टी नेतृत्व ही विश्वास नहीं करेगा, तो मतदाता भी भ्रमित हो सकता है, इसलिए समाजवादी पार्टी के नेतृत्व को गठबंधन से दूर रहना चाहिए। उत्तर प्रदेश के चुनावी संग्राम में अपनी मुख्य भूमिका रखनी है, तो समाजवादी पार्टी के समस्त नेताओं को सेनापति के रूप में अखिलेश यादव को स्वीकार करना ही होगा, वरना समाजवादी पार्टी संग्राम से भी बाहर जा सकती है। सपा के शीर्ष नेतृत्व को यह मान लेना चाहिए कि आज की राजनैतिक स्थिति में अगर, अखिलेश यादव सपा की नैया पार नहीं लगा सकते, तो कोई और टोटका उसके काम नहीं आने वाला।
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