शाहजहांपुर के पत्रकार नरेन्द्र यादव पर हुए जानलेवा हमले की गुत्थी लगभग सुलझ गई है। पत्रकार की कथित संत आसाराम के गुर्गों ने ही हत्या करने की कोशिश की थी, जबकि पुलिस लगातार पारिवारिक और व्यक्तिगत रंजिश मानते हुए घटना को दबाने का प्रयास करती रही है। दैनिक जागरण और सरकार की भी भूमिका नकारात्मक रही है, जिससे पीड़ित पत्रकार न्याय और सच की लड़ाई में न सिर्फ अकेला पड़ गया है, बल्कि शारीरिक, मानसिक और आर्थिक संकट भी झेलने को मजबूर है, साथ ही जान पर संकट लगातार बना हुआ है।
उल्लेखनीय है कि शाहजहाँपुर के दैनिक जागरण कार्यालय में तैनात पत्रकार नरेंद्र यादव 17 सितंबर 2014 की रात को करीब 10: 30 बजे कार्यालय से काम समाप्त कर घर जाने के लिए निकले, तभी उन पर अज्ञात लोगों ने धारदार हथियार से हमला कर दिया था। हमलावरों का इरादा उनकी गर्दन अलग कर निर्मम तरीके से हत्या करने का ही था, लेकिन नरेंद्र यादव का यह सौभाग्य रहा कि किसी तरह हमलावर गर्दन अलग करने में कामयाब नहीं हो पाये, पर नरेंद्र बुरी तरह घायल हो गये।
घटना कार्यालय के पास की ही थी, जिससे उन्हें प्राथमिक उपचार समय से मिल गया, उनके सिर में 28 और गले में 42 टाँके लगाये गये। अस्पताल में 11 दिन भर्ती रहे, तब जान बच पाई थी। इस घटना में अज्ञात हमलावरों के विरुद्ध मुकदमा दर्ज कराया गया, लेकिन पुलिस लगातार यही दर्शाने का प्रयास करती रही कि नरेंद्र पर हमला पारिवारिक और व्यक्तिगत कारणों से हुआ है, रिपोर्टिंग से हमले का कोई संबंध नहीं है, लेकिन अब सच लगभग सामने आ गया है।
पुलिस आसाराम के कार्तिक नाम के गुर्गे तक पहुंच गई। अहमदाबाद के रहने वाले कार्तिक का फोटो पुलिस ने नरेंद्र को दिखाया, तो नरेंद्र ने उसे तत्काल पहचान लिया, क्योंकि घटना के दिन जिस व्यक्ति से नरेंद्र की भिड़ंत हुई थी, वह कार्तिक ही था। सूत्रों का कहना है कि कार्तिक के साथ सीतापुर और कानपूर के दो व्यक्ति और थे, जो घटना को अंजाम देकर बाइक से फरार हो गये थे। बताते हैं कि कार्तिक ने ही अमृत प्रजापति की हत्या की थी, जिसमें वह गिरफ्तार हो चुका है और फिलहाल जेल में है, जिससे नरेंद्र की मुश्किलें और बढ़ गई हैं। हालाँकि नरेंद्र को गनर मिला हुआ है, लेकिन उसे समय-समय पर हटा दिया जाता है, जिससे स्पष्ट है कि पुलिस घटना को गंभीरता से नहीं ले रही है।
दैनिक जागरण की भूमिका और भी निंदनीय रही है। सच का साथ देने वाले नरेंद्र का उत्साहवर्धन करने की जगह संस्थान ने नरेंद्र को बरेली में तैनात कर दिया था। सूत्रों का कहना है कि उस समय कार्यालय के ही कुछ लोग आसाराम के पक्ष के लोगों से रूपये लेने की बात करते रहते थे, लेकिन नरेंद्र ने झुकने-बिकने से स्पष्ट मना कर दिया था, जिससे उनके कुछ बेईमान साथी भी आसाराम के गुर्गों से मिल गये थे, तभी नरेंद्र पर हमला करने का दुस्साहस आ गया था और उन्हीं साथियों ने ईमानदार नरेंद्र की ही छवि पर प्रश्न चिन्ह लगा दिया था।
नरेंद्र के प्रकरण में सरकार की भूमिका भी बेहद उदासीन रही है। नरेंद्र को आर्थिक मदद देना भी मुनासिब नहीं समझा गया। इतना लंबा समय बीत जाने के बावजूद उच्चस्तरीय जाँच तक करानी उचित नहीं समझी। अब घटना का खुलासा हो गया है, तो भी न संस्थान गंभीर है और न ही सरकार, जिससे न्याय और सच की लड़ाई में नरेंद्र यादव जैसा ईमानदार पत्रकार अकेला पड़ता नजर आ रहा है।
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पत्रकारों के लिए पूरी तरह असुरक्षित जिला है शाहजहाँपुर
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