वास्तविक लोकतंत्र की स्थापना के उद्देश्य से गहन मंथन के बाद दो वर्ष ग्यारह माह और अठारह दिन में दुनिया के सर्वश्रेष्ठ और सबसे बड़े लिखित संविधान की रचना की गयी, जिसे 26 जनवरी 1950 को देश में विधिवत लागू कर दिया गया। संविधान का मूल स्वरूप वास्तव में उत्तम ही है, क्योंकि संविधान की रचना के दौरान रचनाकारों के मन में जाति-धर्म, लिंग और क्षेत्र नहीं थे। उन्होंने देश के प्रत्येक नागरिक को ध्यान में रख कर एक श्रेष्ठ संविधान की रचना की। देश के नागरिकों को समानता का विशेष अधिकार दिया गया, लेकिन संविधान में आये दिन होने वाले संशोधन मूल संविधान की विशेषता को लगातार कम करते जा रहे हैं, जिससे संविधान और लोकतंत्र के प्रति समाज के एक वर्ग की आस्था लगातार कम होती जा रही है।
माना जा सकता है कि गुलाम भारत में कुछ जातियों की सामाजिक और आर्थिक स्थित बेहतर नहीं थी। सामाजिक स्तिथि समान करने के उद्देश्य से ही संविधान की रचना करने वाली समिति के अध्यक्ष डा. भीमराव अंबेडकर ने बेहद कमजोर स्थिति वाले जाति वर्ग को एक दशक तक आरक्षण देने का सुझाव रखा, जिसे बेहद जरूरी मानते हुए मान लिया गया, लेकिन यह क़ानून नहीं है। आरक्षण समाप्त भले ही न किया जाए, लेकिन समय के अनुसार उस प्रस्ताव में परिवर्तन होना चाहिए था, पर जाति और धर्म की घृणित राजनीति के चलते अब आरक्षण व्यवस्था समाज के अन्य वर्गों के शोषण का कारण बनती जा रही है। संविधान के अनुसार एक ओर नागरिकों को समानता का अधिकार मिला हुआ है, जिसके अनुसार जाति और वंश के आधार पर कोई श्रेष्ठ या हीन नहीं है, देश और कानून की नजर में सब एक समान ही हैं, लेकिन दूसरी ओर जाति और वंश के आधार पर ही आरक्षण देने की व्यवस्था बना रखी है। समानता के अधिकार के बीच अब स्पष्ट रूप से आरक्षण व्यवस्था आड़े आने लगी है। आरक्षण का मूल उदेद्श्य समाज के दबे-कुचले लोगों की आर्थिक व सामाजिक स्थिति सुदृढ़ कर समतामूलक समाज की स्थापना करना ही था, लेकिन अब वही आरक्षण व्यवस्था लोकतंत्र के लिए ही गंभीर समस्या बनती जा रही है। अव्यवस्था के चलते आरक्षण का लाभ आरक्षण के दायरे में आने वाली सभी जातियों के सभी लोगों को भी समान रूप से नहीं मिल पा रहा है। समूचे तन्त्र में भ्रष्टाचार का राक्षस इतना प्रभावी हो गया है, कि आरक्षण का लाभ संबंधित जातियों के दस या पन्द्रह प्रतिशत धनाढ्य लोग ही उठा पा रहे हैं, वहीं आरक्षण विहीन जातियों के लोगों को लगने लगा है कि आरक्षण के चलते उनके अधिकारों का हनन किया जा रहा है। आरक्षण से समाज के किसी वर्ग को कोई आपत्ति न थी और न है, पर घृणित राजनीति के चलते किसी न किसी राज्य में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति व पिछड़े वर्ग में एक-दो और जातियों को शामिल कर दिये जाने का क्रम चलता ही रहता है, इसी तरह अब धर्म के आधार पर भी समाज को बांटने की परंपरा शुरू हो गयी है, जिससे सामान्य वर्ग में सवर्ण कही जाने वाली अंगुलियों पर गिनने लायक कुछ ही जातियां बची हैं। सामान्य श्रेणी में आने वाली कुछ जातियों के संगठन भी आरक्षण के दायरे में खुद को लाने की मांग करते देखे जा सकते हैं। हो सकता है, एक दिन बाकी बची जातियों को भी आरक्षण के दायरे में शामिल कर लिया जायेगा, ऐसे में सिर्फ ब्राह्मण, ठाकुर और वैश्य ही बचेंगे, जो आरक्षण के दायरे से बाहर होंगे, जबकि आज के आंकड़े बताते हैं कि अब इन तीनों जातियों की भी आर्थिक और सामाजिक स्थिति सुदृढ़ नहीं रह गई है।
एक ओर केन्द्र व राज्य सरकारें जाति भेद मिटाने के लिए तमाम योजनायें और कार्यक्रम चला रही हैं, राजनैतिक दल, दलित नेता एवं तमाम बुद्धिजीवी भी वर्ण व्यवस्था के तहत चली आ रही जाति व्यवस्था को समाप्त करने की बात करते रहते हैं और दूसरी ओर उसी जाति व्यवस्था के तहत आरक्षण दिया जा रहा है, ऐसे में जातिगत आधार पर दूरियां और नफरत बढऩी स्वाभाविक ही है। आरक्षण विहीन सामान्य वर्ग में आने वाली जातियों के लोगों को अब यह लगने लगा है कि आरक्षण के रूप में क़ानून बना कर उनका खुलेआम शोषण किया जा रहा है। लोकतंत्र की गरिमा बनाए रखने के लिए वर्तमान आरक्षण व्यवस्था में परिवर्तन करने की दिशा में प्रभावी कदम उठाये जाने चाहिए थे, लेकिन आश्चर्य की ही बात कही जायेगी कि राजनेताओं ने प्रोन्नति में आरक्षण व्यवस्था लागू करने का क़ानून बनाने की पहल शुरू कर दी है। प्रस्ताव राज्यसभा से पास भी हो गया है, पर पुनर्विचार करने का समय अभी शेष है। सामाजिक दूरी का कारण बनते जा रहे इस प्रस्ताव को यहीं छोड़ देना चाहिए और ऐसी व्यवस्था तैयार करनी चाहिए, जिससे जरूरतमंद को लाभ मिले। आर्थिक और सामाजिक स्थिति समान करने के उद्देश्य से रोजगार में आरक्षण व्यवस्था फिर भी समझ आती है, लेकिन रोजगार मिलने के बाद जाति के आधार पर ही प्रोन्नति देना तो सरासर सामान्य वर्ग का शोषण ही है और क़ानून बना कर शोषण करना भारत जैसे लोकतंत्र में दुर्भाग्य पूर्ण भी कहा जाएगा।
मूल संविधान भी यही कहता है कि किसी ख़ास जाति या वंश में जन्मा व्यक्ति श्रेष्ठ नहीं है। हर नागरिक भारतीय है और सभी के अधिकार समान हैं, तभी भारतीय हर्ष पूर्वक प्रतिवर्ष गणतंत्र दिवस मनाते हैं। मूल संविधान की वर्षगांठ मनानी भी चाहिए, लेकिन संशोधित संविधान समाज के प्रत्येक व्यक्ति को समान दृष्टि से नहीं देख रहा। गाली, मारपीट, हत्या या किसी भी तरह की घटना पर दो तरह के कानून स्पष्ट नजर आ रहे हैं। जाति के आधार पर ही अलग-अलग धारायें लगाने का प्रावधान है, इतना ही नहीं जाति के आधार पर ही रोजगार के अवसर दिये जा रहे हैं और अब सरकारी नौकरियों में प्रोन्नति देने की व्यवस्था भी जाति के आधार पर ही करने की तैयारी है। सामान्य वर्ग का सवाल अपनी जगह सही है। लोकतंत्र भी कहने को ही बचा है, क्योंकि जनप्रतिनिधि चुनने की आजादी भी छीन ली गयी है। जाति के आधार पर जनप्रतिनिधि चुनने का भी कानून बना दिया गया है, ऐसे में सवाल यह भी उठ रहा है कि जाति के आधार पर दिये जा रहे आरक्षण के चलते जिन जातियों के लोगों के अधिकारों का हनन हो रहा है, वह संविधान की वर्ष गाँठ क्यूं मनायें?
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