कार्तिक पूर्णिमा का पर्व आस्था और श्रद्धा के साथ देश भर में मनाया जा रहा है। देश और दुनिया के लाखों गंगा भक्त ठंड के बावजूद गंगा किनारे प्रवास किये हुए हैं। भक्ति, ध्यान, साधना, जप, तप और पूजा-अर्चना कर लोक-परलोक सुधारने की कामना करते देखे जा रहे हैं। आस्था, श्रद्धा और परंपरा के चलते गंगा की प्रति दिन आरती भी उतारी जा रही है, पर अकाट्य श्रद्धा और अटूट विश्वास के बाद भी लाखों-करोड़ों भक्तों की भीड़ में गंगा अनाथ ही नजर आ रही है। विकास के नाम पर गंगा को लगातार प्रदूषित किया जा रहा है, जिससे गंगा के अस्तित्व पर ही प्रश्र चिन्ह लगा हुआ है। आने वाली पीढिय़ां इस अवसर पर किस जगह एकत्रित होंगी, यह चिंता गंगा किनारे आये लोगों में नहीं दिख रही है। आम आदमी की बात छोड़ भी दी जाये, तो संत समाज भी प्रदूषित हो रही गंगा को लेकर गंभीर नहीं दिख रहा है, जबकि गंगा को प्रदूषण मुक्त करने की हुंकार भरने का अवसर ऐसे पर्व से बेहतर हो ही नहीं सकता।
पवित्र गंगा धार्मिक या सामाजिक दृष्टि से प्राचीन काल से ही श्रद्धा व आस्था का प्रतीक यूं ही नहीं रही है। गंगाजल बाकी नदियों से अधिक शुद्ध माना जाता है, क्योंकि असंख्य असाध्य बीमारियां जो दवा के प्रयोग से सही नहीं हो पाती थीं, वे बीमारियां गंगाजल के सेवन से या गंगा स्नान से ही ठीक हो जाया करती थीं। इसीलिए गंगा के प्रति लोगों की श्रद्धा और आस्था बढ़ती गयी। भागीरथ द्वारा गंगा को धरती पर लाने की कहानी सभी को पता है। गंगा के बारे में धार्मिक ग्रंथों में बहुत कुछ लिखा गया है। कुछ लोग इस सब पर अविश्वास जताते देखे जाते हैं। वह सब बढ़ा-चढ़ा कर लिखा गया हो, इस बात से भी इंकार नहीं किया जाना चाहिए, पर गंगाजल अन्य नदियों के पानी जैसा नहीं है। गंगा जल बाकी नदियों के पानी से अलग है। यह बात विज्ञान सिद्ध कर चुका है। वैज्ञानिक परीक्षण कर चुके हैं कि गंगाजल में बैक्टीरियोफेज नामक विषाणु होते हैं, जो हानिकारक सूक्ष्म जीवों को मार देते हैं। इसलिए गंगाजल मानव सभ्यता के लिहाज से अन्य नदियों के पानी से बेहतर है। हिंदू परिवारों में गंगाजल रहता है, क्योंकि गंगाजल के बगैर पंचामृत नहीं बन सकता एवं पूजा-अर्चना के शुभ अवसर पर गंगाजल का विशेष महत्व माना जाता है, पर घर में गंगाजल रखने का वैज्ञानिक आधार भी यही है कि जिन विषाणुओं को तुलसी का पौधा व गाय का गोबर नहीं मार पाता, उन विषाणुओं को गंगाजल मार देता है, जिससे परिवार के सदस्य स्वस्थ रहते हैं, लेकिन जिन लोगों को इस बात पर भरोसा न हो, वह एक बोतल में गंगाजल व दूसरी बोतल में किसी अन्य नदी या नल आदि का पानी भर कर रख सकते हैं और कुछ समय बाद परीक्षण करा सकते हैं। गंगाजल में कभी कीड़े नहीं पड़ते, जबकि साधारण पानी कुछ ही दिन बाद पीने लायक नहीं रहता और दुर्गंध आने लगती है। गंगाजल की शुद्धता का इससे बड़ा प्रमाण और क्या दिया जाये, साथ ही शुद्धता परखने का इससे सरल तरीका भी क्या बताया जाये?
गंगाजल जब धार्मिक दृष्टि से व वैज्ञानिक आधार पर अन्य नदियों से बेहतर है, तो भी लोग गंगा को लेकर चिंतित नहीं हैं। गंगा के प्रदूषित होने को लेकर बैठक, रैली, सम्मेलन, यात्रा निकाली जाती हैं, पर राजनेताओं की ओछी राजनीति के नीचे जैसे अन्य अच्छी बातें दफन हो जाती हैं, वैसे ही पवित्र गंगा को प्रदूषण मुक्त करने का मुददा भी दब कर रह जाता है और धर्म से जोड़ कर गंगा को अस्तित्व की लड़ाई लडऩे को छोड़ दिया जाता है, हालांकि सरकार गंगा को राष्ट्रीय धरोहर घोषित कर चुकी है। गंगा एक्शन प्लान और राष्ट्रीय नदी सरंक्षण योजना चला चुकी है, पर इस सबका कहीं असर नहीं दिख रहा है। अगर गंगा के प्रदूषित होने में कोई कमी आई है, तो वह सिर्फ सरकार को ही दिख रही होगी। वास्तविकता यही है कि गंगा लगातार प्रदूषित होती जा रही है। आज हालात यह हैं कि कहीं-कहीं गंगाजल कीचडय़ुक्त पानी से भी बद्तर है। इसीलिए आचमन करते समय श्रद्धालुओं को आंखें बंद करनी पड़ती हैं।
गंगाजल में वायु को शुद्ध करने की एवं अन्य गैसों को आक्सीजन में परिवर्तित करने की असामान्य क्षमता होती है। एक रिपोर्ट के अनुसार गंगा में बायोलाजिकल आक्सीजन स्तर 3 डिग्री सामान्य से बढ़ कर 6 डिग्री से अभी अधिक हो गया है और लगातार बढ़ रहा है। गंगा में प्रतिदिन लगभग 3 करोड़ लीटर से भी अधिक कचरा गिराया जा रहा है, जो पवित्र गंगा को बर्बाद कर रहा है। इसकी जानकारी सरकार को तो है ही, उनको भी है, जो गंगा को राष्ट्रीय धरोहर की जगह अपनी संपत्ति मानते हैं, पर वह (धार्मिक नेता) भी गंगा को सच्चे मन से प्रदूषण मुक्त कराने की बजाये, सिर्फ राजनीति ही कर रहे हैं, अन्यथा जैसे अन्य हित लाभ वाले मुददों पर आंदोलन किया जाता रहा है, वैसा ही आंदोलन गंगा को प्रदूषण मुक्त करने को लेकर क्यों नहीं किया जा रहा?
केन्द्र व राज्य सरकारें चिकित्सा व्यवस्थाओं को दुरुस्त रखने के लिए रुपया पानी की तरह बहा रही हैं, लेकिन विश्व बैंक की रिपोर्ट कहती है कि उत्तर प्रदेश में 12 प्रतिशत बीमारियों की जड़ गंगा का प्रदूषित हो रहा जल ही है। सरकार अगर गंगा के प्रदूषित होने के मुद्दे पर गंभीरता से विचार कर काम शुरु कर दे, तो तमाम परेशानियां खुद ही हल हो जायेंगी। वैज्ञानिकों की रिपोर्ट को अगर सही माना जाये, तो आज गंगाजल पीने की तो बात ही छोडिय़े, खेतों में सिंचाई करने लायक भी नहीं है। प्रदूषित गंगाजल से भूमि बंजर हो सकती है। प्रदूषित जल से उगाई जा रही फसल भी हानिकारक हो सकती है, मतलब गंगाजल लगातार जहर में परिवर्तित होता जा रहा है, पर सरकार सिर्फ योजना और प्लान बनाने के बाद हाथ पर हाथ रखे बैठी देख रही है, जबकि गंगा के विलुप्त होने पर या जहरीला होने पर समाज के किसी एक वर्ग पर ही असर नहीं होगा, बल्कि हर जाति, हर धर्म और हर समुदाय के लोग प्रभावित होंगे।
गंगा में वैसे तो शहरों की पूरी गंदगी ही समा रही है, पर गंगा को प्रदूषित करने में सबसे ज्यादा योगदान शराब, चमड़ा व खाद फैक्ट्रियों का ही है। इन फैक्ट्रियों से निकलने वाला रसायनयुक्त प्रदूषित पानी इतना घातक होता है कि यह पानी जहां-जहां से गुजरता है, वहां की भूमि बंजर हो जाती है। कंटीले पेड़ों के अलावा ऐसी जमीन पर और कुछ नहीं उगता। इस जहरीले पानी की वजह से ही गंगा को शुद्ध रखने वाले जीव मर चुके हैं और जो बचे हैं, वह लगातार मर रहे हैं।
जंग, योजना या कोई भी कार्यक्रम बगैर जनसहयोग के सफल नहीं हो सकते। इतिहास गवाह है कि नेता बिगुल जरुर बजाते हैं, पर अपने हित लाभ पूरे होते ही समर्पण भी करते देखे गये हैं। ऐसा ही गंगा के साथ हो रहा है। राजनीतिक व धार्मिक नेता बिगुल तो बजाते दिखते हैं, पर स्वहित पूरे होते ही आंदोलन से किनारा कर गंगा को भूल जाते हैं। हरिद्वार में भ्रष्ट संत समाज द्वारा चलाये गए आंदोलन को जेपी ग्रुप ने ही बंद कराया था। आंदोलन का नेतृत्व करने वाले भ्रष्ट संतों के आश्रम जेपी ग्रुप के धन से आज भी चमक रहे हैं और उन महल जैसे आश्रमों में कथित संत आनंद ले रहे हैं, इसीलिए लोगों को मोक्ष प्रदान करने वाली गंगा अपने अस्तित्व की लड़ाई खुद ही लड़ रही है। मैदानी इलाकों में गंगा की स्थिति बेहद खराब हो चुकी है, तो अब पहाड़ों पर भी सुरक्षित नहीं हैं। लगातार पिघल रहे हिमशिखरों के कारण भी अस्तित्व पर प्रश्रचिन्ह लगा हुआ है।
अमेरिकी वैज्ञानिकों का दावा है कि वर्ष 2०3० तक हिमशिखर पूरी तरह पिघल जायेंगे। रिपोर्ट को अगर सही माना जाये, तो गंगा खुद ही मिट जायेगी। यह ध्यान रखना चाहिए कि गंगा पहाड़ों व समुद्र के बीच के संतुलन को बनाये रखने का काम भी करती है। इसलिए यह ध्यान रखना चाहिए कि गंगा के न होने का मतलब होगा प्रलय। शास्त्रों में भी ऐसा कहा गया है कि इस बार जल प्रलय होगी। इसलिए अब गंगा के मुददे पर भी जनता को ही खड़ा होना पड़ेगा। गंगा को बचाने के लिए आम आदमी को मतलब हर जाति, हर धर्म और हर क्षेत्र के लोगों को ही कमर कसनी होगी, तभी गंगा बच पायेगी। गंगा को बचाने की शुरुआत अगर, कार्तिक पूर्णिमा के पवित्र अवसर पर ही की जाये, तो गंगा को प्रदूषण मुक्त होने में अधिक समय नहीं लगेगा। गंगा की पूजा-अर्चना करने और आरती उतारने भर की आस्था से अब गंगा का भला नहीं होने वाला। आपकी तमाम पीढ़ियों को मोक्ष देने वाली गंगा आज स्वयं संकट में है, इसलिए मोक्षदायिनी को बचाने का हर व्यक्ति का कर्तव्य भी है और धर्म भी।