मेरा मरना तो कोई बात नहीं
आपकी आरजू न मर जाये
मेरे घर से करीब 24 किलोमीटर पर ही रिहाइश थी उनकी। कस्बा बिसौली लेकिन, उनसे मुलाकात केवल तीन या, चार बार हुई, वो भी नशिस्तों में या, चंदौसी के एक या, दो मुशायरों में। मेरा पारिवारिक परिवेश ऐसा है या, मेरी भी रुचि ऐसी है कि बाहर के क्या, अपने शहर के काफी कवियों, शायरों, लेखकों से परिचित हूँ। केवल व्यक्तिगत तौर पर ही नहीं बल्कि, लेखन के जरिये भी लेकिन, मेरी बदनसीबी रही कि मैं फहमी साहब को तब जान पाई जब वो सोशल मीडिया से मशहूर हुए, इससे पहले बस इतना जरूर जानती थी कि बिसौली में एक शायर हैं, जिनका नाम पुत्तन फहमी है लेकिन, कोरोना के समय जो उनके शेर दहाड़ते हुए मंजरे आम पर आये तो, अचानक से एक नये पन और सादे पन की महक ने अदब के बागीचे को रंगत दे दी।
आसान लफ्जों में बड़ी बात जब वो कहते थे तो, बर-बस होंठों पे मुस्कान तैर जाती थी और मन ही मन मैं बुद्बुदाती- क्या बात है। कमाल के शायर हैं फहमी साहब आप।
पहले लगता था तुम ही दुनिया हो
अब ये लगता है तुम भी दुनिया हो
पूछ लेते वो बस मिजाज मेरा
कितना आसान था इलाज मेरा
कभी-कभी बड़ी अटपटी बातें भी कर देते थे शेरों में। किसी शेर में छिपकली को उन्होंने शायद तन्हाई का साथी बनाया था, उस शेर की कैफियत से मुत्तासिर न हो पाई थी लेकिन, वो जो उसकी व्याख्या करते तो, वो भी इग्नोर नहीं की जा सकती थी। उनका अपना डिक्शन, अपना शब्दों का रखाव, ऐसे जाविये ढूंढ लाना कि अचरज हो कि ये भी अशआर के सब्जेक्ट हो सकते हैं या, बोल-चाल की भाषा में भी इतना बड़ा कुछ कहा जा सकता है। व्यक्तित्व एकदम सादा। किसी से बोलना चालना नहीं। मेरी भी बस उनसे दुआ सलाम ही हुई। कम बोलते थे और मंच पर चुप-चाप बैठे हुये ही उन्हें देखा।
एकायक मिली शोहरत ने उन्हें जिस बुलंदी पर पहुँचाया, उसे देखकर किसे गुरेज न हो, ये कहने में कि प्रतिभा के साथ-साथ किस्मत भी साथ हो तो, बात बनती है वरना, सन अस्सी से शायरी करते आ रहे फहमी साहब, इस उम्र में आकर लोकप्रिय न हुये होते। लोकप्रियता, उन्हें देर से मिली लेकिन, जब मिली तो, जबरदस्त मिली। तसल्ली है कि वे अपना यह रूप देख गये लेकिन, उनके फकीराना मिजाज को देखते हुये, ये लगता नहीं था कि उन्हें शोहरत का कोई बहुत चार्म है।
मुझे याद है एक बार चंदौसी मुशायरे में वे बहुत नासाज तबियत में शिरकत करने आये थे। किसी आईआईटी में एक दिन पहले शायद उनका प्रोग्राम था, वो स्टेज पर बैठने को राजी न हुये। बोले- जब सब पढ़ लें तब बुला लेना, मैं आराम करूँगा। कमजोर और बीमार शरीर के साथ जो सफर उन्होंने चंद सालों में किया है, वो इतना तवील है कि अच्छे खासों की जिंदगी निकल जाये लेकिन, कहते हैं ना खुशबू को कोई रोक नहीं सकता।
एक बड़े शायर को बहुत सम्मान के साथ अंतिम विदा।
जरा मोहतात होना चाहिये था
बगैर अश्कों के रोना चाहिये था
अब उन को याद कर के रो रहे हैं
बिछड़ते वक्त रोना चाहिये था
मिरी वादा-खिलाफी पर वो चुप है
उसे नाराज होना चाहिये था
चला आता यकीनन ख्वाब में वो
हमें कल रात सोना चाहिये था
सुई धागा मोहब्बत ने दिया था
तो कुछ सीना पिरोना चाहिये था
हमारा हाल तुम भी पूछते हो
तुम्हें मालूम होना चाहिये था
वफा मजबूर तुम को कर रही थी
तो फिर मजबूर होना चाहिये था
(लेखिका डॉ. सोनरूपा विशाल विश्व प्रसिद्ध कवियित्री हैं एवं साहित्यिक संस्था आचमन की संस्थापक हैं)
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