23 जनवरी 1897 को उड़ीसा के कटक निवासी बंगाली परिवार के घर जन्मे नेता जी सुभाष चंद्र बोस प्रसिद्ध वकील जानकीनाथ बोस और प्रभावती की नौंवी संतान थे, वे कुल 14 बहन-भाई थे, जिनमें 6 बेटियाँ और 8 बेटे थे। कटक में प्राथमिक शिक्षा लेने के बाद कलकत्ता में पढ़े, इसके बाद भारतीय प्रशासनिक सेवा (इंडियन सिविल सर्विस) की तैयारी के लिए इंग्लैंड के केंब्रिज विश्वविद्यालय चले गये, जहां उन्होंने न सिर्फ परीक्षा उत्तीर्ण की, बल्कि चौथा स्थान प्राप्त किया। 1921 में सिविल सर्विस छोड़ कर वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से जुड़ गए। हालांकि वे महात्मा गांधी के अहिंसा के उदारवादी विचारों से सहमत नहीं थे, लेकिन वे मानते थे कि विचार भले ही भिन्न हैं, पर उददेश्य तो एक ही है, इसीलिए वे कट्टरपंथी होते हुए भी महात्मा गांधी से जुड़े रहे।
नेता जी तन-मन और धन से स्वतंत्रता आंदोलन चला रहे थे, उनका एक मात्र लक्ष्य आजादी था, जिससे वे भारतीय जनमानस के हृदय में समाते चले गये। लोग अपने बच्चों का नाम गर्व से सुभाष रखने लगे। लोग अपने घरों में महाराणा प्रताप और शिवाजी के चित्रों के साथ सुभाष चंद्र बोस का भी चित्र टांगने लगे। नेता जी की लोकप्रियता इस तरह बढ़ती जा रही थी कि उदारवादी और कट्टरपंथी गुटों के अधिकाँश नेता उनसे ईर्ष्या करने लगे, लेकिन इस सब से बेखबर नेता जी अपने लक्ष्य की ओर बढ़ने के प्रयास करते रहे। 26 जनवरी 1931 को कोलकाता में राष्ट्र ध्वज फहराते हुए नेता जी एक विशाल मोर्चे का नेतृत्व कर रहे थे, जिस पर पुलिस ने लाठियां चलाईं और घायल नेता जी के साथ आंदोलनकारी पुलिस ने गिरफ्तार कर जेल भेज दिए। इस अवसर का महात्मा गाँधी ने राजनैतिक लाभ लेने का प्रयास किया। नेता जी जेल में थे और महात्मा गाँधी ने अंग्रेज सरकार से समझौता कर लिया, जिसके अंतर्गत सामान्य कैदी रिहा करवा दिये गये और भगत सिंह को फांसी की सजा एक तरह से स्वीकार कर ली गई। महात्मा गाँधी के इस निर्णय से नेता जी बेहद दुखी और आक्रोशित हुए। नेता जी इस निर्णय के बाद महात्मा गाँधी से भी दूर जाते रहे।
षड्यंत्रों और कूटनीतियों से बेपरवाह नेता जी अंग्रेजों की जड़ें काटने में जुटे रहे। नेता जी कुल 11 बार जेल गये। पहली बार वे 16 जुलाई 1921 को छः महीने के लिए जेल गये। 1925 में गोपीनाथ साहा नाम के एक क्रांतिकारी ने कोलकाता के पुलिस अधीक्षक चार्लस टेगार्ट की जगह गलती से अर्नेस्ट डे नाम के एक व्यापारी की हत्या कर दी, जिसमें उसे फांसी की सजा दी गयी। गोपीनाथ को फाँसी होने के बाद नेता जी ने गोपीनाथ के शव का अन्तिम संस्कार किया, इससे अंग्रेज सरकार ने यह निष्कर्ष निकाला कि नेता जी कट्टरपंथियों से सम्बन्ध रखते हैं और उन्हें उत्प्रेरित भी करते हैं, इसी आरोप में नेता जी सरकार ने गिरफ्तार कर लिए और बिना कोई मुकदमा चलाये उन्हें अनिश्चित काल के लिये म्यांमार के मांडले कारागृह में बंद कर दिया गया। उन्होंने देश छोड़ने की सशर्त रिहाई स्वीकार नहीं की, लेकिन बाद में बीमारी के चलते सरकार को नेता जी रिहा करने पड़े। 1930 में नेता जी पुनः गिरफ्तार किये गये, लेकिन जेल से ही वे कोलकाता के महापौर चुन लिए गये, तो उन्हें सरकार ने रिहा कर दिया। 1932 में नेता जी को गिरफ्तार कर सरकार ने अल्मोड़ा की जेल में रखा, लेकिन बिमारी के चलते पुनः रिहा कर दिए गये।
अंत में नेता जी सरकार ने नजरबंद कर दिए, लेकिन 16 जनवरी 1941 को वे पुलिस को चकमा देते हुए मोहम्मद जियाउद्दीन बन कर निकल गये। तमाम कठिनाइयों का सामना करते हुए नेता जी पेशावर होते हुए अफगानिस्तान की राजधानी काबुल पहुंच गये। यहाँ से नेता जी जर्मन और इटालियन दूतावासों की मदद से आरलैंडो मैजोंटा नाम के इटालियन व्यक्ति बनकर रूस की राजधानी मास्को होते हुए जर्मनी की राजधानी बर्लिन पहुंच गये। यहाँ उन्होंने भारतीय स्वतंत्रता संगठन और आजाद हिंद रेडियो की स्थापना की। जर्मन सरकार के एक मंत्री एडॅम फॉन ट्रॉट से उनकी गहरी मित्रता हो गई, जिसके सहारे वे 29 मई 1942 को एडॉल्फ हिटलर से मिले। हिटलर को भारत में कोई रूचि नहीं थी एवं उसने अपनी आत्म कथा माईन काम्फ में भारतीयों के संबंध में नकारात्मक टिप्पणी की थी, जिस पर नेता जी ने आपत्ति दर्ज कराई, तो हिटलर ने क्षमा मांगते हुए अगले संस्करण में खंडन प्रकाशित करने का नेता जी को वचन दिया था। इसके बाद 8 मार्च 1943 को नेता जी जर्मनी के कील बंदरगाह से एक जर्मन पनडुब्बी में बैठकर पूर्वी एशिया की ओर निकल गये। जर्मन पनडुब्बी ने उन्हें हिंद महासागर में मैडागास्कर के किनारे छोड़ दिया, जहाँ से वे दोनों समुद्र में तैरकर जापानी पनडुब्बी तक पहुँचे, जिसने उन्हें इंडोनेशिया के पादांग बंदरगाह पर पहुँचा दिया। वर्ष 1933 से लेकर 1936 तक नेता जी यूरोप में रहे। इटली में उनकी मुलाकात मुसोलिनी से हुई, जिसने भारत के स्वतंत्रता संग्राम में सहायता करने का वचन दिया, इसी तरह आयरलैंड के नेता डी. वलेरा से नेता जी की गहरी मित्रता रही।
तमाम देशों के नेताओं से मिलते हुए नेता जी टोक्यो पहुंच गये, जहां 21 अक्टूबर 1943 को सिंगापुर में उन्होंने स्वाधीन भारत की अंतरिम सरकार की स्थापना की। वे खुद इस सरकार के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और युद्धमंत्री बने। इस सरकार को कुल नौ देशों ने मान्यता दी। “तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आज़ादी दूँगा।” का नारा देते हुए नेता जी ने जापान सरकार की मदद से अंग्रेजों की फौज द्वारा पकड़े हुए भारतीय युद्धबंदियों को भर्ती करना शुरू किया। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान उनकी आजाद हिंद फौज ने जापानी सेना के सहयोग से भारत पर आक्रमण कर दिया और अंडमान व निकोबार द्वीप जीत लिए। नेताजी ने इन द्वीपों को “शहीद द्वीप” और “स्वराज द्वीप” का नया नाम दिया, इसके बाद उन्होंने इंफाल और कोहिमा पर आक्रमण किया, जहां अंग्रेजों का पलड़ा भारी रहा और उन्हें पीछे हटना पड़ा।
6 जुलाई 1944 को आजाद हिंद रेडियो पर नेता जी ने भाषण दिया और महात्मा गाँधी से सहयोग मांगते हुए जापान से अपने संबंधों पर स्पष्टीकरण भी दिया, इसी संबोधन में नेता जी ने महात्मा गाँधी को प्रथम वार राष्ट्रपिता कहा, लेकिन सत्ता हथियाने के सपने देख रहे कांग्रेसियों ने नेता जी को अपेक्षित सहयोग नहीं दिया। नेता जी के प्रयासों के चलते 1946 में भारतीय नौसेना ने विद्रोह कर दिया, तो अंग्रेज काँप उठे, इस अवस्था का कांग्रेसियों ने लाभ उठाया और अंग्रेज सरकार से समझौता कर सत्ता हथिया ली। कहा जाता है कि सत्ता हस्तांतरण के समय कांग्रेसियों ने अंग्रेजों की कई शर्तें लिखित में स्वीकार कीं, जिनमें नेता जी को अपराधी के रूप में अंग्रेजों को सौंपने की भी शर्त बताई जाती है। इस शर्त के बाद नेता जी के लिए कुछ भी करने के लिए बचा नहीं था। जिस देश के लिए उन्होंने अपना सर्वस्व सौंप दिया, उस देश के अपने लोगों ने सत्ता के लिए उनके साथ घात किया। जिस सुभाष चंद्र बोस के नाम से अंग्रेजों की रूह कांपती थी, वो सुभाष चंद्र बोस अपनों से लड़ने का साहस न जुटा पाये, इसीलिए विमान हादसे की अफवाह फैला कर वे पहले ही एकांतवास में चले गये।
भारतीय सरकार अधिकारिक तौर पर नेता जी को सम्मान नहीं देती, क्योंकि कांग्रेसी सत्ता के लिए नेता जी को अपराधी मान चुके हैं। कांग्रेसियों की ऐसा करना मजबूरी भी कही जा सकती है, क्योंकि नेता जी को अपराधी न मानते, तो इस देश के कण-कण पर नेता जी का राज होता। अंग्रेजों के चापलूस, स्वार्थी और चरित्रहीन कांग्रेसी नेता जी के रहते सत्ता के आसपास भी नजर नहीं आते। वर्तमान में राष्ट्रपति भवन, उच्चतम न्यायालय और प्रधानमंत्री आवास में उनकी तस्वीर भले ही नजर न आये, लेकिन नेता जी इस देश के बच्चे-बच्चे के हृदय में बसते हैं, ऐसे में उन्हें सरकारी सम्मान की आवश्यकता भी नहीं है।
नेता जी द्वारा संगठित आजाद हिंद फौज को छोड़कर विश्व भर में ऐसा कहीं उदाहरण नहीं मिलता, जहाँ हजारों युद्धबंदियों ने संगठित होकर अपने देश की आजादी के लिए प्रचंड संघर्ष किया हो। स्वतंत्रता के बाद सावरकर ने क्रांतिकारियों का एक विशाल सम्मेलन आयोजित किया था, जिसकी अध्यक्षता नेता जी सुभाष चंद बोस के चित्र ने की थी, जो नेता जी के प्रति श्रद्धा का प्रतीक है। वर्तमान में भारत में गैर कांग्रेसी सरकार है, जिसके प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी राष्ट्रवादी स्वभाव के माने जाते हैं, ऐसे में आम भारतीय की उनसे यह अपेक्षा है कि वे नेता जी को सरकारी दस्तावेजों में भी अपेक्षित सम्मान दिलायें, साथ ही देशवासी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से यह भी अपेक्षा रखते हैं कि गणतंत्र दिवस के अवसर पर इस बार लाल किले की चोटी से अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओमाबा के सामने नेता जी सुभाष चंद्र बोस के कार्यों का खुल कर गुणगान करें और यह संकल्प लें कि अगले स्वतंत्रता दिवस के समारोह में जर्मनी में रह रही उनकी बेटी अनीता को मुख्य अतिथि बनायेंगे।