साहित्य जगत के लिए दुःखद खबर है। सुविख्यात कवियत्री डॉ. मधुरिमा सिंह नहीं रहीं। हृदय आघात के चलते वे शरीर त्याग गईं। उनके निधन पर साहित्यकारों के साथ उनके करोड़ों प्रशंसक दुखी हैं।
हरदोई में 9 मई 1956 को जन्मी डॉ. मधुरिमा सिंह को बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से दर्शनशास्त्र में पी.एच.डी. की उपाधि मिली थी। ‘स्वयंसिद्धा यशोधरा’, ‘पाषाणी’, ‘बांसुरी में फूल आ गये’, “मेरी गजल भी रही इस जमाने में” आदि कृतियों के लिए उन्हें हमेशा याद किया जाता रहेगा। वे पिछले कुछ समय से बीमार थीं और लखनऊ में गोमती नगर के विजय- खण्ड स्थित ‘अभिव्यक्ति’ में स्वास्थ्य-लाभ कर रही थीं, इस बीच सुबह दिल का दौरा पड़ा और वे चली गईं। उनके निधन की सूचना सार्वजनिक होते ही चारों ओर शोक व्याप्त हो गया। पति जगन्नाथ सिंह ने गोमती तट पर ‘वैकुण्ठ धाम’ में मुखाग्नि दी। उनके आशुतोष और अस्मिता नाम की दो सन्तान रुपी कृतियाँ हैं।
डॉ. मधुरिमा सिंह की ही रचना के साथ उन्हें नमन …
काठ की थी नाव मेरी देह, नेह के दुकूल आ गए
होंठ से छुआ जो श्याम ने, बाँसुरी में फूल आ गए
स्वप्न कुछ ज़रूर लुट गए, पर हमारी आँख खुल गई
साधना की सिद्ध साँस में , तेरी दिव्य गंध घुल गई
ज्ञानियों को कब मिला है वो, प्रेम से ख़रीदे रुकमनी
सिर्फ एक तुलसी- पात से, देह श्याम की थी तुल गई
प्रेम जब भी देह से जुड़ा, वासना के शूल आ गए
मुट्ठियों की रेत – सी तुली, कामना को प्राण मिल गया
किस नदी की तेज़ धार में, तन शिलाओं का भी छिल गया
तन तो जलकर राख हो गया, मन की आग देर तक जली
जानकी का धैर्य देखकर, दिल धरा का भी था छिल गया
गीत के सुरीले कंठ में, दर्द के बबूल आ गए