धार्मिक मान्यताओं और सामाजिक परंपराओं को याद दिलाने वाले त्योहार होली को भी पाश्चात्य संस्कृति का ग्रहण लगता जा रहा है। ईश्वर और प्रकृति की सत्ता का अहसास कराने वाले इस त्योहार को मनाने की जगह सेलिब्रेट करने की परंपरा बढ़ती जा रही है। ग्रामीण क्षेत्रों में परंपरायें फिर भी अभी किसी हद तक दिख रही हैं, पर खुद को विकसित कहने वाला शहरी तबका परंपराओं से लगातार दूर भागता नजर आ रहा है। यही वजह है कि परंपराओं और परंपरागत त्योहारों से विमुख होते जा रहे पढ़े-लिखे शहरी तबके की ईश्वर और प्रकृति के साथ भी बेरुखी बढ़ती जा रही है।
बसंत ऋतु के फाल्गुन माह में मनाये जाने वाले इस त्योहार को लेकर लोगों के अलग-अलग और अपने-अपने तर्क हैं। सबसे चर्चित और पौराणिक मान्यता यही है कि दुर्दांत राजा हिरण्यकश्यप ने स्वयं को भगवान घोषित कर दिया, पर उसके बेटे प्रहलाद ने उसे भगवान मानने से मना कर दिया, इसलिए हिरण्यकश्यप ने अपने ही पुत्र प्रहलाद को कई तरह की यातनायें ही नहीं दीं, बल्कि अपनी बहन होलिका की गोद में प्रहलाद को बैठा कर आग के हवाले कर दिया। होलिका को भगवान ने आग से न जलने का वरदान दे रखा था, फिर भी आग में होलिका जल गयी और भगवान विष्णु का भक्त प्रहलाद सकुशल आग से बाहर निकल आया। तभी से ईश्वर के सर्वशक्तिमान होने की खुशी में होली का त्योहार मनाये जाने की परंपरा मानी जाती है। इससे यह संदेश भी मिलता है कि दुर्गुणी के पास चाहे जैसी शक्ति हो, पर वह शक्ति उसके किसी काम नहीं आती। सद्कार्य करने वाले का आत्मबल बेहद मजबूत होता है, जिसके सामने दुनिया की कोई भी शक्ति नहीं टिक सकती। होलिका और प्रहलाद के साथ भी ऐसा ही कुछ हुआ। इसके अलावा होली मनाने का दूसरा प्रमुख कारण यह भी रहा होगा कि ठंड से राहत मिलने के साथ ही बसंत ऋतु शुरु हो जाती है, जो प्राकृतिक बदलाव लेकर आती है। चारों ओर हरियाली छा जाती है। फसलें पकने के कगार पर पहुंच चुकी होती हैं। सभी के घर अन्न, धन के साथ सुख-समृद्धि आने वाली होती है, जिसकी खुशी में होली मनाने की परंपरा पड़ी होगी, साथ ही यह भी हो सकता है कि जगह-जगह सामूहिक रूप से आग जला कर जल्दी मौसम परिवर्तित कर फसलों के अनुकूल वातावरण बनाया जाता होगा, ताकि फसलें शीघ्र पक जायें। इसके अलावा अग्नि को देवता भी माना जाता है, इसलिए पूजा-अर्चना कर अग्नि देवता को खुश किया जाता होगा, ताकि वह फसलों को सुरक्षित रखें, क्योंकि इसी ऋतु में ही खेत में रखी फसलों में आग लगने की आशंका अधिक रहती है। उस समय इस मौसम में मुख्य रूप से जौ और गन्ने की फसल हुआ करती थीं। सामान्य परिवारों में जौ के आटे से बनी रोटी ही खाई जाती थी। वैसे जौ की रोटी गेहूं के मुकाबले ज्यादा शक्तिवर्धक और गुणकारी होती है, पर बाद में विदेशों से गेहूं का बीज आ गया तो जौ की रोटी लोगों ने धीरे-धीरे खानी छोड़ दी। गर्मी के मौसम में जौ का सत्तू खाने की परंपरा बहुत पुरानी है। सत्तू बगैर गुड़ के बन ही नहीं सकते। गर्मी व बीमारी से सत्तू व गुड़ ही रक्षा करते थे। इसके अलावा भोजन में, मट्ठे के साथ, दूध-दही के साथ या फिर किसी भी तरह के अन्य पकवान के साथ गुड़ की मुख्य भूमिका रहती थी। शायद, इसी लिए होली में जौ व गन्ने से पूजन करने की परंपरा पड़ी होगी। भूमि और अन्न के बाद मुख्य रूप से लोग अपने जानवरों को भी धन की तरह ही समझते थे। धन ही नहीं, बल्कि गाय को तो देवताओं की तरह ही पूजने की परंपरा रही है। आध्यात्मिक कारणों को अगर नज़रंदाज़ कर दिया जाये, तो भी गाय दूध, दही और घी के अलावा कृषि कार्य के लिए बछड़े भी देती थी। गाय के मूत्र व गोबर को भी अमृत के समान माना जाता है, जो विभिन्न असाध्य रोगों में प्रयोग किया जाता है। गाय के गोबर से बने उपलों में भी ऐसी कोई शक्ति होती होगी, जो विषाणुओं को मार कर रोगों से रक्षा करती होगी। यह चिकित्सीय आधार हो सकता है कि ठंड के मौसम में पैदा हुए विषाणुओं को आग जला कर मारने की परंपरा के तहत ही उपलों से बनी होली जलाने की परंपरा पड़ी होगी, ताकि बदले वातावरण में विषाणु पूरी तरह खत्म हो जायें।
खैर, जो भी कारण रहे हों। पर सबसे प्रमुख कारण यही है कि होली धर्म से जुड़ा आस्था का त्योहार है, जिसका अपना महत्व है। परंपरा है कि होली से पहले आने वाली पूर्णिमा के दिन गांव या मोहल्ले में एक नियत स्थान पर पुजारी द्वारा पूजन करने के बाद होली रखी जाती है। इस स्थान पर हर घर से पांच-पांच उपले रखे जाते हैं। घर की महिलायें व बच्चे जंगल से फूल चुन कर लाते हैं। घर में फूलों की रंगोली बना कर फाल्गुन माह में गाये जाने वाले विशेष गीत-मल्हार ढोलक की थाप कर गाये जाते हैं। यह दौर पूरे एक माह चलता है। इसके बाद फाल्गुन की पूर्णिमा को पुजारी होली में आग लगाता है। पूरे गांव के लोग उस समय मौजूद रह कर पूजन करते हैं। इसके बाद एक-दूसरे को बधाई देने का क्रम शुरु होता है। शायद, प्रहलाद के बचने की खुशी में ही यह सब किया जाता है और एक-दूसरे को रंग-गुलाल आदि लगा कर शाम तक खुशियां मनायी जाती हैं। एक बात और इस दिन घरों में चूल्हा होली से लायी आग से ही जलाया जाता है, पकवान बनाये जाते हैं, जिन्हें पूरा परिवार हंसी-ख़ुशी बैठकर खाता है। होली बाकी त्योहारों से इस लिए भी अलग माना जाता है कि जिन परिवारों में किसी सदस्य की मौत हो चुकी होती है, उन परिवारों में होली के बाद पुन: खुशियां मनानी शुरु हो जाती हैं, इसलिए होली सुख-समृद्धि के साथ बदलाव या परिवर्तन का भी प्रतीक है। होली सिखाती है कि दुखों को भूल कर जीवन की नयी शुरुआत करो, जो बीत गया है, जो घट गया है, उस के सोच-विचार में समय मत गंवाओ, पर होली का अब यह सब मतलब कहां रहा है? अब तो ग्रामीण क्षेत्रों में भी जानवर पालने की परंपरा खत्म हो चली है। विशेष तौर पर गाय तो दिखाई ही नहीं देती, क्योंकि कृषि कार्यों में बैलों की जरुरत पड़ती थी, तो गाय से बछड़े मिलते थे और गाय दूध की पूर्ति तो करती ही थी, लेकिन बछड़ों का काम अब मशीनों से होता है, तो दूध के लिए विदेश से आयी भैंस सब को बेहद रास आने लगी है। उपले थापने का तो सवाल ही नहीं उठता। गांवों में तो परंपरा बनाये रखने के लिए होली के स्थान पर कुछ उपले दिख भी जाते हैं, पर शहरों में उपले विहीन होली एक कूढ़े का ढेर नजर आती है। लगता है मानो, पूरे मोहल्ले की गंदगी इकठठी कर दी हो और सफाई कर्मी उठाना भूल गया हो। होली के स्थान पर कूड़े की बंद पड़ी थैलियां यही दर्शाती हैं कि शहरों में होली के स्थान का प्रयोग एक माह तक कूड़ा डालने के रूप में ही होता है।
छूआछूत के चलते दलित इन सभी रस्मों में पहले से ही शामिल नहीं किये जाते हैं। वह अपनी होली अलग जलाते हैं या फिर जलाते ही नहीं हैं। सवर्णों में या मध्यम वर्गीय परिवारों में अब चूल्हे की जगह एलपीजी गैस का प्रयोग होने लगा है, जिससे होली से आग लाने या फिर उसका श्रद्धा पूर्वक प्रयोग करने का सवाल ही नहीं उठता। रंग या गुलाल के लिए टेसू के फूलों का प्रयोग विशेष तौर पर किया जाता था, जिसे लगाने से शरीर महक उठता था, पर अब सिंथेटिक कलर आ गये हैं, जो शरीर को हानि ही पहुंचाते हैं। रही बात फाल्गुनी गीतों-मल्हारों की, तो उन पर पूरी तरह फिल्मी गानों का असर है। होली मनाते आ रहे हैं, इसीलिए ही बस सेलिब्रेट कर रहे हैं, पर नयी पीढ़ी को नहीं पता कि क्यों मना रहे हैं?, तभी आस्था और श्रद्धा के साथ परंपरा गायब हो चली है, वरना पहले तो लोग पूरे महीने होली की तैयारी करते थे। धनाढ्य वर्ग के लोग तो बरसाने व नंदगांव की होली देखने विशेष तौर पर जाते थे, लेकिन मशीनी युग में आस्था, श्रद्धा, प्रेम और हर्ष के मायने ही बदल गये हैं। वे दिन अब शायद ही लौटें!
खैर, भारत का अत्यंत प्राचीन पर्व है होली, पर सिर्फ हिंदूओं तक ही सीमित नहीं है। आर्यों के होली मनाने के तमाम प्रमाण हैं, ऐसे ही मुस्लिम भी होली पर जमकर गुलाल उड़ाते थे। प्रसिद्द मुस्लिम पर्यटक अलबरूनी के ऐतिहासिक यात्रा संस्मरण में होलिकोत्सव का वर्णन देखने को मिलता है। मुस्लिम कवियों का होली प्रिय विषय रही है। मुगल काल की ही बात करें, तो अकबर और जोधाबाई एवं जहांगीर और नूरजहाँ के होली खेलने का वर्णन कई जगह मिल जाता है। अलवर स्थित संग्रहालय के एक चित्र में जहाँगीर को होली खेलते हुए भी दिखाया गया है। शाहजहाँ के समय में होली का अंदाज़ ही बदल गया। शाहजहाँ के ज़माने में होली को ईद-ए-गुलाबी या आब-ए-पाशी कहा जाता था, जिसका अर्थ रंगों की बौछार होता है।
साहित्यकारों के लिए तो शुरू से ही होली प्रिय विषय रहा है। होली से संस्कृत साहित्य भरा हुआ है। श्रीमद्भागवत महापुराण में रसों के समूह रास का वर्णन है। हर्ष की प्रियदर्शिका, रत्नावली और कालिदास की कुमारसंभव एवं मालविकाग्निमित्रम की प्रमुख कृतियों में रंग नामक उत्सव का वर्णन है। कालिदास द्वारा ही रचित ऋतुसंहार में भी एक सर्ग ही ‘वसन्तोत्सव’ को अर्पित है। भारवि, माघ और अन्य कई संस्कृत कवियों ने वसन्त की चर्चा की है। चंद बरदाई द्वारा रचित हिंदी के पहले महाकाव्य पृथ्वीराज रासो में भी होली का वर्णन है। भक्तिकाल हो या रीतिकाल, होली हर काल में कवियों का प्रिय विषय रही है। आदिकालीन कवि विद्यापति से लेकर भक्तिकालीन सूरदास, रहीम, रसखान, पद्माकर, जायसी, मीराबाई, कबीर और रीतिकालीन बिहारी, केशव, घनानंद आदि ने होली पर खूब लिखा है। इसी तरह सूफी संत हज़रत निजामुद्दीन औलिया, अमीर खुसरो और बहादुर शाह जफर ने भी होली पर सुंदर रचनाएँ लिखी हैं, जिनकी जगह आज फूहड़ फिल्मी गानों ने ले ली है।
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