भारत में इंदिरा गांधी द्वारा आपातकाल लगाया गया था और इस अवधि में नागरिकों का जमकर शोषण किया गया था, इससे अधिक युवा पीढ़ी नहीं जानती। हालाँकि युवा पीढ़ी आपातकाल को गलत मानते हुए कांग्रेस और नेहरू-गांधी वंश से चिढ़ती ही है पर, युवा पीढ़ी को बिन्दुवार घटनाओं की जानकारी नहीं है। स्वतंत्र भारत के सर्वाधिक काले अध्याय के बारे में युवाओं को सटीक जानकारी होना चाहिए, इससे उनमें राजनैतिक और कानूनी रूप से और अधिक गंभीरता आयेगी, वे बेहतर निर्णय ले सकेंगे।
सबसे पहले आपातकाल की बात करते हैं तो, आपातकाल तीन तरह के हो सकते हैं। राष्ट्रीय आपातकाल, राष्ट्रपति शासन और आर्थिक आपातकाल। राष्ट्रीय आपातकाल के अंतर्गत मौलिक अधिकारों का अनुच्छेद- 19 निलंबित हो जाता है। राज्यों में राजनैतिक संकट की स्थिति में राष्ट्रपति शासन लगाया जा सकता है एवं अनुच्छेद- 360 के अंतर्गत आर्थिक आपातकाल लागू किया जा सकता है, जिसके बाद सब कुछ देश के अधीन हो जाता है, नागरिकों का अपना कुछ नहीं रहता।
राष्ट्रीय आपातकाल अब तक तीन बार लगाया जा चुका है। पहली बार भारत-चीन युद्ध के दौरान 1968 में और दूसरी बार भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान 1971 में और तीसरी बार इंदिरा गांधी ने 25 जून 1975 को लगाया था। राष्ट्रपति शासन राज्यों में लगता रहता है लेकिन, आर्थिक आपातकाल की अवस्था भारत में अभी तक नहीं बनी है।
चीन और पाकिस्तान से युद्ध के समय आपातकाल लगाने की आवश्यकता थी। युद्ध के समय आपातकाल लगाना अनिवार्य हो जाता है, क्योंकि युद्ध के दौरान त्वरित निर्णय लेने पड़ते हैं, ऐसे में कैबिनेट बैठकें आयोजित कर निर्णय लेना देशहित में नहीं होता, सो आपातकाल लागू कर दिया जाता है, इसलिए 1968 और 1971 में लगाये गये आपातकाल की कोई चर्चा नहीं करता। चर्चा और आलोचना इंदिरा गांधी द्वारा लगाये गये आपातकाल की ही की जाती है, जिसको लेकर हाल ही में राहुल गांधी ने क्षमा भी मांगी है पर, सवाल उठता है कि वह कुकृत्य क्षमा करने योग्य है?
इंदिरा गांधी ने आपातकाल क्यों लगाया, इसे समझने के लिए उस समय के घटनाक्रम को समझना होगा। लालबहादुर शास्त्री की असमय और विवादित मौत के बाद देश की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को बनाया गया। सरकार के निर्णयों को लेकर न्यायालय में चुनौती दी जाने लगी। न्यायालय सरकार के निर्णयों को लगातार पलट रहा था। 27 फरवरी 1967 को उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश सुब्बाराव के नेतृत्व वाली खंडपीठ ने सात बनाम छः न्यायाधीशों के बहुमत से निर्णय सुनाया कि संसद में दो तिहाई बहुमत के साथ भी किसी संविधान संशोधन के माध्यम से मूल-भूत अधिकारों के प्रावधान को न तो समाप्त किया जा सकता है और न ही उन्हें सीमित किया जा सकता है, इस निर्णय से इंदिरा गांधी बौखला गई थीं क्योंकि, वे नागरिकों के मूल-भूत अधिकारों में कटौती करना चाहती थीं।
उक्त प्रकरण के अलावा भी अन्य कई निर्णयों को लेकर न्यायालय से टकराव चल ही रहा था, इस बीच 1971 के चुनाव में इंदिरा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस को बहुमत मिला और वे भी रायबरेली लोकसभा क्षेत्र से बड़े अंतर से विजयी हुईं पर, इंदिरा गांधी की जीत पर प्रतिद्वंदी राजनारायण ने न्यायालय में अपील कर दी और अकूत रुपया खर्च कर चुनाव में धांधली करने का आरोप लगाया। संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के उम्मीदवार राजनारायण के आरोप सुनवाई और बहस के बाद सही पाये गये, जिससे न्यायालय ने इंदिरा गांधी के चुनाव को निरस्त करने का आदेश पारित कर दिया, साथ ही उन पर छः वर्षों तक चुनाव लड़ने का प्रतिबंध लगा दिया गया, जिसके बाद इंदिरा गांधी की सोचने-समझने की शक्ति क्षीण हो गई और फिर आपातकाल लगाने की राष्ट्रपति फखरे अली अहमद से संस्तुति कर दी, जिसकी घोषणा 25 जून 1975 को की गई। आपातकाल 21 मार्च 1977 तक रहा पर, इन 21 महीनों में वह सब भी हुआ, जो संभवतः अंग्रेज भी नहीं कर पाये थे।
आपातकाल के दौरान इंदिरा गांधी और उनका परिवार ही सब कुछ था। इंदिरा गांधी के साथ राजीव गांधी, सोनिया गांधी, संजय गांधी, मेनका गांधी, उनके कुछ चुनिंदा लोग और कुछेक अफसरों के अलावा किसी के पास न कोई अधिकार था और न ही कोई शक्ति। देश भर के प्रमुख नेताओं को जेलों में बंद कर दिया गया। आम जनता पर कहीं भी गोली चला दी जाती थी, इस अवधि में कितने लोग मरे होंगे, कितने बलात्कार किये गये होंगे, कितने घर जलाये गये होंगे, कितने परिवार हमेशा के लिए तबाह हो गये, इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती, इसी अवधि में संजय गांधी ने नसबंदी अभियान चलाया, जिसके अंतर्गत पकड़ कर नाबालिगों तक की नसबंदी कर दी गई, इस दौरान समाचार पत्रों के कार्यालय में सरकारी अधिकारी बैठता था, जिसकी अनुमति के बाद ही समाचार प्रकाशित होता था, इस दौरान आम जनता की हालत जानवरों से भी बद्तर रही।
बात यहीं खत्म नहीं होती। निजी लाभ के लिए देश में आपातकाल लगा कर आम जनता पर कहर ढाया गया, जिसकी जांच के लिए जनता पार्टी की सरकार ने 28 मई 1977 को भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश जेसी शाह की अध्यक्षता में शाह आयोग गठित किया गया। आयोग ने सौ से ज्यादा बैठकों के दौरान 48,000 से भी ज्यादा कागजातों की पड़ताल की। आयोग को कई बार विस्तार दिया गया, जिसके बाद आयोग ने दो अंतरिम रिपोर्ट के बाद अंतिम रिपोर्ट सरकार को सौंप दी। आयोग ने माना कि इंदिरा गांधी के साथ संजय गांधी, प्रणब मुखर्जी, बंसी लाल, कमलनाथ और प्रशासनिक सेवा के कई वरिष्ठ अधिकारियों की भूमिका कानून के विरूद्ध थी।
आयोग की जांच पर सुनवाई के लिए विशेष न्यायालय गठित करने की मांग उठाई गई, जिसके बाद 8 मई 1978 को संसद ने विशेष एक्ट पारित कर दो विशेष न्यायालयों का गठन कर दिया, इस बीच जनता पार्टी की सरकार गिर गई और जांच आख्या भी उसी सरकार के मलबे में दब गई। 16 जुलाई 1979 को इंदिरा गांधी पुनः सत्ता में आ गईं, जिसके बाद उच्च न्यायालय ने भी कह दिया कि जनता पार्टी द्वारा गठित विशेष न्यायालय सवैंधानिक नहीं हैं और किसी भी तरह की जांच और सुनवाई करने की कोई आवश्यकता नहीं है। अब माना जाता है कि शाह आयोग की जांच की पत्रावली भारत में है ही नहीं। कहा जाता है कि ऑस्ट्रेलिया की नेशनल लाइब्रेरी में एक प्रति है, जिस पर संज्ञान लेने की अब कोई जरूरत महसूस नहीं करता। राहुल गांधी ने पिछले दिनों आपातकाल को लेकर क्षमा मांगी, जबकि आपातकाल को लगाने और उस दौरान बर्बरता पूर्ण कुकृत्य करने के दोषी महत्वपूर्ण दायित्व आज भी संभाल रहे हैं। राहुल गांधी ने क्षमा इसलिए मांगी कि आपातकाल गलत लगाया गया और उस दौरान गलत किया गया, ऐसे में उन्हें दोषियों को कांग्रेस से बाहर करना चाहिए।
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