बदायूं जिले की कटरी में कलुआ डकैत का लंबे समय तक आतंक रहा है। कलुआ डकैत को भी पुलिस का भरपूर संरक्षण प्राप्त था। कलुआ की मदद करने के आरोप में एक थानाध्यक्ष को बर्खास्त तक किया गया लेकिन, बाद में उसे स-सम्मान बहाल भी कर दिया गया था, इसीलिए भ्रष्ट पुलिस वालों का मनोबल बढ़ता रहता है, यह सब इसलिए ताजा हो गया कि कानपुर की चर्चित मुठभेड़ के बाद हिस्ट्रीशीटर विकास दुबे से संबंध रखने को लेकर चौबेपुर थाने के एसओ विनय तिवारी संदिग्ध पाये गये हैं, इस आरोप में उन्हें तत्काल प्रभाव से निलंबित कर दिया गया है।
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बात करते हैं कलुआ डकैत की, उस कलुआ डकैत की, जिसने सर्वाधिक पुलिस वालों को मौत के घाट उतारा था और उनके हथियार भी लूट ले जाता था, उसका बदायूं, शाहजहाँपुर, फर्रुखाबाद और उस समय के एटा जिले की सीमाओं में आतंक बढ़ गया तो, उसे निपटाने का दायित्व उस समय के आईजी ने स्वयं संभाला और कलुआ को ठिकाने लगाने का दायित्व अपनी एसओजी को दे दिया गया। एसओजी ने सटीक जानकारी जुटा कर एक रात कटरी में दबिश दी, उस समय कादरचौक के थाना प्रभारी थे देवेंद्र पांडेय। कलुआ को देवेन्द्र पांडेय ने देख लिया और आवाज लगा कर भगा दिया। कलुआ घोड़ी छोड़ कर भाग गया और कटरी में विलीन हो गया। एसओजी घोड़ी लेकर बरेली लौट गई थी, कलुआ उस समय अकेला था, गैंग साथ में नहीं था वरना, उस दिन भी पूरी टीम मारी जा सकती थी।
उस समय बदायूं जिले की एसएसपी थीं तेजतर्रार एन.पद्मजा, उन्होंने देवेंद्र पांडेय को तत्काल निलंबित कर दिया था एवं जांच पूरी होने के बाद बर्खास्त कर दिया गया, फिर एक बदनाम आईजी आ गये, उन्होंने देवेंद्र पांडेय को स-सम्मान बहाल कर दिया, यह आईजी बाद में डीजीपी भी बने थे। सवाल यही है कि जब जाँच-पड़ताल के बाद बर्खास्तगी की कार्रवाई की गई थी तो, उसे पुनः बहाल कैसे कर दिया गया? और वो भी तब जब आरोपी को हाईकोर्ट से कोई राहत नहीं मिली थी। समझ सकते हैं कि राजनैतिक दबाव रहा होगा। राजनैतिक दबाव में जब बर्खास्त एसओ बहाल हो सकता है तो, वह अपराधियों को संरक्षण क्यों नहीं देगा?
असलियत में कटरी क्षेत्र में कलुआ की दहशत थी, साथ ही जातीय हीरो होने के कारण तमाम गांवों में उसकी बात को माना भी जाता था, जिससे वह चुनाव प्रभावित करता था। चुनाव में हार-जीत को लेकर उसे राजनैतिक संरक्षण मिलता था, राजनेताओं के दबाव में पुलिस में भी उसके गुलाम हो बन जाते थे, इस भयानक गठजोड़ के कारण ही उसने लगभग 22 पुलिस वालों को मौत के घाट उतार दिया था, जो एक रिकॉर्ड है।
इसके अलावा रेंज के लगभग सभी जिलों में कारतूस घोटाला प्रकाश में आया था। जांच बैठाई गई, सरकार, अफसर और जाँच के स्तर बदलते रहे। उस समय आरआई हरीराम को भी बर्खास्त किया गया था पर, उन्हें भी बाद में बहाल कर दिया गया। अन्य दोषियों पर कोई कार्रवाई नहीं हुई, जबकि कारतूस घोटाले का संबंध कलुआ से जुड़ रहा था। एक दशक पहले बदायूं का निवासी और शाहजहाँपुर जिले में तैनात एक हेड मोहर्रिर कारतूस कार में भर कर जा रहा था तभी, वह हादसे का शिकार हो गया था। कारतूसों का जखीरा सड़क पर फैलने से मामला खुल गया था, उस समय हेड मोहर्रिर पर कार्रवाई की गई थी लेकिन, जाँच तह तक नहीं गई और उसे भी बहाल कर दिया गया था, इससे स्पष्ट है कि अपराधियों को आगे बढ़ाने में पुलिस की ही अहम भूमिका रहती है।
उधर थानाध्यक्ष देवेन्द्र पांडेय राजनैतिक संरक्षण से बहाल तो हो गये थे पर, वे फर्जी मुठभेड़ में फंस गये। पीलीभीत जिले में तैनाती के दौरान करीब 26 साल पहले फर्जी मुठभेढ़ हुई थी, जिसकी सीबीआई जाँच हुई थी, इस प्रकरण में सीबीआई कोर्ट ने 47 पुलिस वालों को अपहरण, हत्या व हत्या का षडयंत्र रचने का आरोपी माना और सभी को उम्रकैद की सजा सुनाई। प्रत्येक इंस्पेक्टर पर 11-11 लाख, एसआई पर 8-8 लाख और सिपाहियों पर 2.75 लाख रुपए का जुर्माना भी लगाया।
उल्लेखनीय है कि 12 जुलाई, 1991 को नानकमत्ता, पटना साहिब, हुजुर साहिब व अन्य तीर्थ स्थलों की यात्रा करके 25 सिक्ख तीर्थ यात्रियों का जत्था वापस लौट रहा था। सुबह करीब 11 बजे पीलीभीत जिले के कछाला घाट पुल के पास पुलिस द्वारा इन यात्रियों की बस रोक ली गई थी। 11 सिक्ख तीर्थ यात्रियों को बस से उतार लिया गया। उतारे गए यात्री बलजीत सिंह उर्फ पप्पू, जसवंत सिंह उर्फ जस्सी, सुरजन सिंह उर्फ विट्टा, हरमिंदर सिंह, जसवंत सिंह उर्फ फौजी, करतार सिंह, लखमिंदर सिंह उर्फ लक्खा, रंधीर सिंह उर्फ धीरा, नरेंद्र सिंह उर्फ नरेंद्र, मुखविंदर सिंह उर्फ मुक्खा व तलविंदर सिंह को पीलीभीत पुलिस जबरन मिनी बस से ले गई थी, फिर अलग-अलग थाना क्षेत्रों में मुठभेड़ दिखाकर इन सबको मार दिया गया था, जबकि तलविंदर लापता हो गये थे। कुल 10 सिक्ख तीर्थ यात्रियों को उग्रवादी बताकर मार दिया गया था।
उक्त फर्जी मुठभेड़ का हिस्सा एसओ देवेन्द्र पांडेय भी रहे थे, जो लखनऊ स्थित जेल में लगभग सवा साल रहे और फिर उन्हें अपील पर रिहा कर दिया गया। वर्तमान में वे सुल्तानपुर जिले में अपने पैतृक गाँव के प्रधान बताये जाते हैं, जहाँ चैन की जिंदगी व्यतीत कर रहे हैं, जबकि अन्य सभी आरोपी जेल में सजा काट रहे हैं मतलब, देवेन्द्र पांडेय भाग्य के भी धनी हैं।
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