उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के फैसलों को लेकर कभी-कभी लगता है कि वह राजनेता की तरह सरकार नहीं चला रहे, बल्कि अपरिपक्व आम आदमी की तरह खेल-खेल में निशाने लगा रहे हैं, जिनमें एक-दो निशाना कभी-कभी सही जगह पर भी लग जाता है। उत्तर प्रदेश के बदायूं जिले में स्थित उसहैत थाना क्षेत्र के गाँव कटरा सआदतगंज की चर्चित घटना में उनके द्वारा की जा रही कार्रवाई को देख कर तो कम से कम यही लगता है।
बदायूं जिले के गाँव कटरा सआदतगंज में 27-28 मई की रात दर्दनाक घटना घटित हुई। 28 मई की सुबह को चचेरी-तहेरी बहनों के शव आम के पेड़ पर लटके मिले। मृतकाओं के परिजनों ने तीन सगे भाइयों सहित दो पुलिस वालों पर यौन शोषण और हत्या का आरोप लगाया। घटना स्थल पर शाम तक बवाल हुआ, लेकिन अंत में पुलिस ने परिजनों की तहरीर के आधार पर ही मुकदमा दर्ज कर लिया। चूँकि आरोपी यादव जाति के थे, इसलिए अन्य राजनैतिक दलों ने घटना को आसानी से मुददा बना लिया और कानूनी अव्यवस्था को लेकर सरकार को कठघरे में खड़ा कर दिया। प्रधानमन्त्री कार्यालय ने घटना को लेकर रिपोर्ट तलब कर ली और फिर अगले दिन गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने भी हस्तक्षेप करते हुए घटना में कार्रवाई करने को लेकर प्रदेश के अफसरों को निर्देश दे दिए, तो मुख्यमंत्री अखिलेश यादव थोड़े सक्रीय हुए, जबकि उन्हें विपक्षी दलों के नेताओं की सक्रीयता और गतिविधियों को भांप लेना चाहिए था। घटना स्थल पर राष्ट्रीय ही नहीं, बल्कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर के मीडिया कर्मी जुट चुके थे, इसको लेकर उन्हें प्रशासनिक और पार्टी स्तर से जानकारी होनी चाहिए थी और अगर, उन्हें जानकारी थी, तो विपक्षी नेताओं के सवाल खड़े करने से पहले आवश्यक कार्रवाई करा देनी चाहिए थी, लेकिन अखिलेश यादव ने राजनैतिक वातावरण को गंभीरता से नहीं लिया, जो उनकी अदूरदर्शिता भी कही जा सकती है, तभी उत्तर प्रदेश ही नहीं, बल्कि देश की अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर एक और गलत छवि प्रचारित हो गई।
कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी, बसपा सुप्रीमो मायावती, केन्द्रीय मंत्री रामविलास पासवान और भाजपा के शीर्ष नेताओं की टीम पहुंचने से पहले मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को स्वयं जाना चाहिए था, पर वह न जाने किस संकोच में अभी तक कटरा सआदतगंज नहीं गये हैं। उनका गाँव जाना बहुत आवश्यक भी नहीं था। वह लखनऊ में ही बैठ कर पूरे घटनाक्रम पर नज़र रख सकते थे, पर वो भी सही से नहीं कर पाये। उन्हें सबसे पहले घटना क्षेत्र से संबंधित थाना उसहैत के एसओ गंगा सिंह यादव को निलंबित कराना चाहिए था। घटना के दिन एसएसपी अतुल सक्सेना छुट्टी पर थे, इसलिए प्रभारी एसएसपी एसपी सिटी मान सिंह चौहान का तबादला कर देना चाहिए था। मुकदमा दर्ज हो चुका था। सिपाहियों सहित पांचों नामजद आरोपी गिरफ्तार हो चुके थे। सरकार ने आर्थिक मदद देने की भी घोषणा कर दी थी, लेकिन इतने बड़े स्तर पर विवादित हो चुकी घटना के बाद भी क्षेत्र के एसओ को नहीं हटाया गया, जिससे सरकार घिरती चली गई। यहाँ तक भी सब ठीक था। विपक्षी नेता जो कर रहे थे, उन्हें वह सब करने देते और वे खुद मौन धारण कर जाते, पर मायावती के हैलीपेड बनाने में बच्चों की मदद लेने की खबर मीडिया में आ गई, तो बड़ी तेजी से कार्रवाई करते हुए श्रम अधिकारी को निलंबित कर दिया। अगले दिन प्रमुख सचिव गृह को हटा कर और भी फंस गये। इस सब से स्पष्ट संदेश चला गया कि वह पूरी तरह दबाव में हैं।
अब सब थम चुका है और लोग घटना के खुलासे का बेसब्री से इंतजार कर रहे थे। मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को भी घटना के पीछे की सच्चाई सामने लाने में ही रूचि लेनी चाहिए थी, पर एक बार फिर बदायूं के एसएसपी अतुल सक्सेना को निलंबित कर घटना को तूल दे दिया। अब एसएसपी को निलंबित करने का कोई औचित्य ही नहीं था, जबकि यह बात लगभग साफ हो चुकी है कि घटना गंभीर भी थी और शर्मनाक भी, पर घटना को विपक्षी नेताओं द्वारा कुछ ज्यादा ही तूल दिया गया और गलत तरीके से प्रचारित किया गया। डीजीपी ए.एल.बनर्जी 3 जून को घटना स्थल पर आये, उस दिन एसएसपी के विरुद्ध कार्रवाई की जाती, तो उससे सरकार के नंबर बढ़ते। जनता में सही संदेश जाता, पर उस दिन एक सिपाही के विरुद्ध भी कार्रवाई नहीं की गई।
एसएसपी के निलंबन का निर्णय इसलिए भी सही नहीं कहा जा सकता कि अभी तक संबंधित एसओ गंगा सिंह यादव के विरुद्ध कोई कड़ी कार्रवाई नहीं की गई है। उसे तीन दिन पूर्व थाना उसहैत से हटा कर बदायूं की ही सदर कोतवाली में भेज दिया गया है, इसलिए सवाल उठेगा ही कि एसएसपी का निलंबन क्यूं? एसओ गंगा सिंह यादव के विरुद्ध कड़ी कार्रवाई न होने को विपक्षी दल और मीडिया जाति से जोड़ेंगे ही।
इस समूचे घटनाक्रम पर नज़र डालें, तो अखिलेश यादव के पास हावी होने का सुअवसर था। केंद्रीय गृह राज्यमंत्री किरन रिजिजू ने यूपी सरकार से पत्र लिख कर आरोपियों के विरुद्ध एससी/एसटी एक्ट के तहत कार्रवाई न करने का सवाल उठाया, वह तभी बदनाम करने का उल्टा सवाल उठा कर केंद्र सरकार को घेर सकते थे। वे स्वयं प्रेस वार्ता करते और अपने प्रत्येक मंत्री, विधायक, सांसद के साथ पार्टी के जिलाध्यक्षों को जुटा देते। केंद्र सरकार पर दबाव बनाने और बदनाम करने का सवाल उठाते, तो केंद्र सरकार स्वयं बचाव की मुद्रा में आ जाती और उसे उल्टा स्पष्टीकरण देना पड़ता। अखिलेश यादव इतना कर पाते, तो बदायूं की घटना में उनकी कूटनीतिक स्तर पर हार नहीं हुई होती, पर उम्र और अनुभव की कमी के साथ हाल ही में आये विपरीत चुनाव परिणामों को लेकर उन पर मानसिक दबाव है, जिससे वह आसानी से घिर गये, पर उन्हें इस दबाव से बाहर निकलना ही पड़ेगा, क्योंकि दबाव में सरकार नहीं चल सकती, वह दबाव में जनहित संबंधी एक भी निर्णय नहीं ले पायेंगे, इस दबाव से बाहर आने के लिए उन्हें अपने बचाव से अधिक विपक्षी दलों पर हमलावर होना पड़ेगा, वरना वह कूटनीतिक स्तर पर लगातार ऐसे ही हारते रहेंगे और कुछ नहीं कर पायेंगे।
उत्तर प्रदेश की जनता भले ही उनके साथ नहीं थी, पर लोकसभा चुनाव के प्रचार के दौरान अखिलेश यादव का मनोबल बढ़ा हुआ था। नरेंद्र मोदी शेरों को लेकर उन पर व्यंग्य और कटाक्ष कर रहे थे, तो अखिलेश यादव भी लकड़बग्घे का जिक्र कर बराबर जवाब दे रहे थे। भाजपा अपनी रैलियों में तकनीक का सहारा ले रही थी, तो उन्होंने भी हाई-फाई रैलियां आयोजित कर आश्चर्यचकित कर दिया था, अब भी वैसे ही आत्मविश्वास की जरूरत है। पूर्ण बहुमत की सरकार बनने पर शुरू के छः-सात महीने ख़ुशी में गुजर गये। इसके बाद लोकसभा चुनाव की तैयारियों को लेकर वह लुभावनी योजनायें बनाने और उनके प्रचार-प्रसार में जुटे रहे। कुल मिला कर उनका अब तक का कार्यकाल दबाव में ही गुजरा है, इसलिए अखिलेश यादव को हर तरह के दबाव से शीघ्र ही बाहर निकलना होगा।
पूर्ण बहुमत की सरकार के मुख्यमंत्री होते हुए अखिलेश यादव गठबंधन की सरकार के मुख्यमंत्री नज़र आ रहे हैं। विपक्षी दलों के नेताओं के साथ उन्हें अपनी सरकार के वरिष्ठ मंत्रियों पर भी हावी होना होगा। अखिलेश यादव नहीं, बल्कि उन्हें उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के अनुकूल व्यवहार करना चाहिए और जनहित में लगातार कड़े फैसले लेने चाहिए। कड़े फैसले लेने के लिए उन्हें हर तरह के दबाव से बाहर आना ही होगा। फिलहाल उत्तर प्रदेश की कानून व्यवस्था को दुरुस्त कर वह जनता का खोया विश्वास तत्काल जीत सकते हैं और एक बार फिर जनता उनके साथ आ गई, तो उनका मनोबल स्वतः बढ़ जायेगा।
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