बदायूं लोकसभा क्षेत्र का चुनाव परिणाम समाजवादी पार्टी के नेताओं, कार्यकर्ताओं और समर्थकों के लिए भले ही अप्रत्याशित नजर आ रहा हो लेकिन, इसकी आधारशिला काफी पहले ही रखी जा चुकी थी। हालाँकि धर्मेन्द्र यादव ने बिल्सी विधान सभा क्षेत्र में 8 हजार वोटों की गड़बड़ी होने का आरोप लगाया है, उनके आरोप में कितना दम है, इस बारे में जांच के बाद प्रशासन का पक्ष सामने आने पर पता चलेगा।
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भाजपा की प्रत्याशी संघमित्रा मौर्य विजयी हुई हैं। जीतने वाले का सब कुछ सही ही होता है, इसलिए जीत की बात ही नहीं करते। असलियत में धर्मेन्द्र यादव हारे हैं, उनसे कोई जीता नहीं है, क्योंकि धर्मेन्द्र यादव बेहद लोकप्रिय हैं, आम जनता से निरंतर जुड़े रहते हैं। दस वर्षों में कभी ऐसा नहीं हुआ, जब वे दो महीने क्षेत्र में न आये हों, वे दिल्ली अथवा, कहीं भी हों, निरंतर जनता से जुड़े रहते हैं और उनके कार्य करते रहे हैं।
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विकास की बात करें तो, उन्होंने उल्लेखनीय विकास कार्य कराये हैं और इतने ज्यादा कराये हैं कि स्वतंत्रता के बाद जितना कार्य हुआ, उससे कई गुना कार्य दस वर्षों में हुआ है। व्यवहार कुशल और उदार भी हैं, कभी झल्लाते नहीं, कभी उल्टी बात नहीं करते, ऐसे में सवाल उठता है कि सब कुछ इतना बेहतर होते हुए चुनाव क्यों हार गये?
सवाल का कोई एक जवाब नहीं हो सकता। कई सारे जवाब हैं। धर्मेन्द्र यादव तीन बार सांसद रहे हैं लेकिन, उन्हें पूर्ण बहुमत की सत्ता में खुल कर कार्य करने का अवसर पहली बार मिला, इस दौरान कई बड़ी गलतियाँ हो गईं। ब्लॉक स्तर के नेता लगभग खत्म कर दिए गये। जिन परिवारों के लिए ब्लॉक प्रमुख होना शान का प्रतीक था, उन परिवारों की राजनीति पूरी तरह खत्म कर दी गई, ऐसे सभी परिवार क्षेत्र की आम जनता पर मजबूत पकड़ रखते हैं, उनका विरोध करना भी हारने का एक कारण है।
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सत्ता के दौरान विधायकों के विरोधियों को वरीयता दी गई, जिससे समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ताओं और समर्थकों का ही शोषण हुआ। अपने कार्यकर्ताओं का शोषण विधायक नहीं रोक पाये, जिससे दोहरा नुकसान हुआ। सत्ता के दौरान जो लोग धर्मेन्द्र यादव के करीबी थे, वे सत्ता जाते ही दूर हट गये और उन्होंने जिन सपाईयों का शोषण किया था, वे शोषण होने के कारण विरोध में खड़े हो गये, इसलिए हारने का एक कारण यह भी है।
आबिद रजा से भिड़ना सही निर्णय नहीं था और भिड़ने के बाद कोठी पर जाकर फैसला करना और भी गलत निर्णय था। स्वामी प्रसाद मौर्य प्रदेश स्तर पर जाति का नेतृत्व करते हैं, उनके आह्वान पर जाति इधर से उधर जाती है, उनकी बेटी यहाँ से चुनाव लड़ रही थी, ऐसे में उनकी जाति के लोगों को लुभाने का प्रयास करना राजनैतिक सोच नहीं कही जा सकती। जो अपनी जाति का एक वोट नहीं दिला सकता, उस छोटे से नेता के सम्मान के लिए आबिद रजा को दरकिनार किया गया। आबिद रजा का साथ पाने से सलीम इकबाल शेरवानी बदायूं लोकसभा क्षेत्र से चुनाव लड़ने को तैयार हो गये। आबिद रजा जो वोट सलीम इकबाल शेरवानी को नहीं दिला पाए, वहां उन्होंने वोट न डालने का दबाव बनाया, जिससे मुस्लिमों का मत प्रतिशत घटा। एक कारण हार का यह भी है।
सांसद के रूप में धर्मेन्द्र यादव ने लोकसभा में पिछड़ों और दलितों के पक्ष में कुछ ज्यादा ही आवाज उठाई, इससे उनका देश में तो कद बढ़ा पर, स्थानीय स्तर पर सवर्णों ने नकारात्मक तरीके से लिया। चुनाव के दौरान सवर्णों के बीच धर्मेन्द्र यादव के भाषणों की गांवों में व्यापक स्तर पर न सिर्फ चर्चा हुई बल्कि, सवर्ण युवाओं ने एकजुट होकर विरोध किया। हार का एक कारण यह भी है।
सहसवान में एक युवक और उसके पिता सभासद का चुनाव हार गये लेकिन, वह धर्मेन्द्र यादव के एक कारिंदे को सप्ताह में एक-दो बार टिफिन में मीट देकर जाता है, इसकी जानकारी संभवतः धर्मेन्द्र यादव को नहीं होगी पर, कारिंदे के कहने पर उन्होंने चुनाव हारे व्यक्ति को नगर पालिका परिषद में अपना प्रतिनिधि नियुक्त कर दिया, जिसका सहसवान में दोहरा नुकसान हुआ, साथ ही इस तरह के निर्णय और भी स्थानों पर लिए गये, जिन्हें नियुक्त करने के कारण धर्मेन्द्र यादव के संज्ञान में नहीं हैं। हार का एक कारण यह भी है।
एक कारण सामाजिक है, जो प्रदेश भर में था। चूंकि सत्ता में रही हैं, इसलिए यादव और जाटव से अन्य जातियां चिढ़ती हैं, यहाँ भी धर्मेन्द्र यादव तीन जातियों के बीच ही खेलते रहे। बड़े स्तर पर उन्हें किसी अन्य जाति का समर्थन नहीं मिला। हालाँकि उन्होंने जाति और धर्म से हट कर ही कार्य किया है पर, समूह की बदली सोच उनके निजी कार्यों पर भारी पड़ गई। हार का एक कारण यह भी है।
इस सबके अलावा भी कई कारण हैं, जैसे अनुभवहीन और अकर्मण्य लोगों का विधान सभा क्षेत्रों का प्रभारी बनाना पर, सबसे बड़ा कारण है धर्मेन्द्र यादव का विपरीत हालातों में पहली बार चुनाव लड़ना। धर्मेन्द्र यादव ग्लैमर में छात्र संघ के अध्यक्ष बन गये। नेता जी के इशारे पर सैफई के ब्लॉक प्रमुख बन गये, उन्हीं के इशारे पर मैनपुरी से पहली बार सांसद बन गये। वर्ष- 2009 में बदायूं आये तो, यहाँ भी ग्लैमर में पहले ही झटके में सांसद बन गये, उस समय बसपा के विरुद्ध लहर थी। पांच बार के सांसद सलीम इकबाल शेरवानी के प्रति मायूसी थी और भाजपा गर्त में जा चुकी थी, इस सबका लाभ धर्मेन्द्र यादव को मिला। पिछला लोकसभा चुनाव समाजवादी पार्टी की सरकार में हुआ था, जिसमें स्वार्थ के चलते उनका कहीं किसी ने विरोध ही नहीं किया।
धर्मेन्द्र यादव का न ग्लैमर है अब, न सत्ता है और उनके आस-पास स्वार्थी तत्व पूरी तरह हावी हैं, जिससे जनाधार वाले शुभचिंतक शांत होकर बैठ गये हैं। विपरीत हालातों में धर्मेन्द्र यादव पहली बार चुनाव लड़े और पहले ही चुनाव में धराशाई हो गये, इससे सिद्ध होता है कि तीन बार सांसद चुनने के बावजूद वे चुनाव प्रबन्धन करना नहीं जानते। चुनाव का सही तरीके से प्रबन्धन न होना भी हार का एक कारण है।
खैर, चुनाव में हार-जीत ज्यादा मायने नहीं रखती, इस हार से उम्मीद की जाती है कि धर्मेन्द्र यादव में और गंभीरता, और उदारता, और बेहतर कार्य करने की दृढ़ता, चुनाव जीतने की ट्रिक, अपने और पराये की पहचान करने की समझ आयेगी। जमीन पर उतर कर आम जनता के बीच जाने का अवसर मिलेगा, जिससे आम जनता के हालातों को और बेहतर तरीके से समझने का अवसर मिलेगा, वे निश्चित ही इस हार के बाद और बड़े नेता साबित होंगे।
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