विश्व प्रसिद्ध कवियित्री एवं साहित्यिक संस्था आचमन की संस्थापक डॉ. सोनरूपा विशाल कई सारे दहकते हुए सवाल उठा रही हैं, उनका खुला पत्र पढ़िये…
मैं अक्सर अपने शहर बदायूं की अच्छाईयों की चर्चा करती रही हूँ, यहाँ की समृद्ध रही साहित्यिक, सांस्कृतिक,परम्परा, ऐतिहासिक परम्परा की भी। कवियों, लेखकों, संगीतकारों का जिक्र भी लेकिन, कभी-कभी लगता है कि क्या विगत के स्वर्णाभ समय को ही याद करते रहना बेवकूफी नहीं!
वर्तमान क्या है, उस पर अधिक ध्यान दिया जाना चाहिए। आज के दौर की बात करूँ तो, दिन-ब-दिन कम होते साहित्यिक और सांस्कृतिक कार्यक्रम बदायूं को अब लगभग मरुस्थल सा बना रहे हैं। पार्टीज में कोई कमी नहीं। अपर क्लास जबरदस्त रूप से इनका आयोजन करता रहता है। मीडियम लोग अपने हिसाब से अपना मनोरंजन करते हैं लेकिन, अगर, शहर की सम्पदा, इतिहास को संरक्षित करने का या, आगे बढ़ाने का प्रश्न आये तो, इसके महत्व को समझने वाले भी उदासीन नजर आते हैं। धनी वर्ग का अपेक्षित सहयोग नहीं है। हालाँकि कई लोग ऐसे हैं, जो ऐसे कार्यों में बढ़-चढ़ कर अपना सहयोग करते हैं और उसी वजह से कुछ हो भी पा रहा है।
सत्ता के प्रतिनिधियों की ओर देखें तो, यहाँ भी घनघोर उदासीनता है किन्तु, भाषण, रैली, उद्घाटन ये सभा, वो सभा, ये सब बढ़िया चल रहा है। धार्मिक आयोजन खूब होते हैं, उसमें उमड़ी जनता, बस जनता अधिक है। धर्म क्या है, इसका उत्तर वो क्यों दें? अखबार पढ़िए तो, लोकल पन्ने पर, ऐसी खबरें कि बस। … समाचार पत्रों में पत्रकारिता का परिचय अब नहीं मिलता। यहाँ की परम्परा, साहित्यकार, कलाकार, इमारतें, स्थानीय विशेषतायें अखबारों के कॉलम में हों तो, कितना अच्छा हो।
परसों मेडिकल कॉलेज के गेट पर तड़प कर मर जाने वाली दो साल की बच्ची और शवों को चूहों के कतरने की खबरें यहाँ की बदहाली बयान करती हैं। सड़कों पर कूड़े के ढेर, चोक नाले, खराब यातातात, व्यवस्था, बेतुकी ढंग से खुली दुकानें, अवैध कॉलोनियाँ मन खराब कर देती हैं। अन्य आधुनिक होते शहरों की तुलना में यहाँ का इंफ्रास्टक्चर बेहद कमजोर है। पता नहीं लेकिन, ऐसा लगता है, जैसे इस शहर की ओर सरकार ने आँखें मूंद ली हैं।
दिल्ली-लखनऊ तक के लिए यहाँ से ट्रेन संचालित नहीं होतीं। व्यापार इसीलिए रफ्तार नहीं पकड़ पाता। सबको जैसे सब स्वीकार है। बस, जिये चले जाना, जैसे यहाँ के वाशिंदों ने अपनी नियति मानी हुई है। अधिकतर लोग भी बस बातें अधिक करते हैं, प्रयास नहीं। जो आवाज उठाये भी तो, उसे साथ नहीं मिलता। कुछ नई और बेहतर शुरुआत करें तो, उसको प्रोत्साहन नहीं मिलता। साहित्यिक-सांस्कृतिक आयोजन करवाने वाली संस्थाओं का न साथ देकर तो लोग रीढ़ तोड़ते ही हैं, साथ में उसकी राहों मे रोड़े अटकाने में भी कोई कसर नहीं छोड़ते। इतनी ईर्ष्या। हालाँकि ये कुछ ही लोग हैं लेकिन, प्रश्न ये है कि ये क्यों हैं? इससे मिल क्या रहा है? क्या सब मिल कर अपने अपने स्तर से यहाँ की आवोहवा को पुरनम नहीं बना सकते? क्या गलत का विरोध तब तक नहीं खत्म होना चाहिए जब तक गलती सुधरे नहीं? क्या अपने प्रतिनिधियों से प्रश्न नहीं करना चाहिए कि शहर इतना बदहाल क्यों? क्यों काम नहीं हो रहे? विकास क्यों नहीं हो रहा?
इन सब परिस्थितियों के साथ चलते हुए भी प्रसन्नता है कि हमारा ये शहर शान्त है, इस शहर में वो तमाम विशेषतायें हैं, जो अन्य भौतिक होते शहरों में नहीं हैं। जहाँ लोगों को बस अपने काम से मतलब होता है, यहाँ लोग एक-दूसरे से वेल कनेक्टेड रहते हैं। मुहल्ले, छत अभी भी कहीं-कहीं एक साथ बैठे लोगों से गुलजार नजर आते हैं। दुःख-सुख में लोग बढ़-चढ़ कर शरीक होते हैं। कुछ बहुत भोले लोग यकींन करने पर मजबूर करते हैं कि आज भी दिलों में कोरापन बाकी है। मैं अंत में हमारे शहर के उन बहुत अच्छे और सहयोग करने वाले जागरूक नागरिकों की हार्दिक इच्छा के साथ अपनी भी इच्छा जोड़ कर यही आशा करती हूँ कि हमारे शहर का केवल इतिहास ही सुंदर और समृद्ध न बना रह जाये। वर्तमान और भविष्य भी सुंदर हो।
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