काशी हिंदू विश्वविद्यालय, बनारस हिंदू विश्वविद्यालय और बीएचयू एक ही संस्थान के नाम हैं, जो आज कल वामपंथियों के निशाने पर है। हालाँकि इस संस्थान पर कुदृष्टि तो लंबे समय से रही है, लेकिन इस बार बदनाम करने में वामपंथी बहुत हद तक सफल हो गये हैं। वामपंथियों द्वारा यहाँ तक कहा जा रहा है कि महामना मदन मोहन मालवीय का विश्वविद्यालय की स्थापना में कोई योगदान नहीं हैं, साथ ही यह भी दुष्प्रचार किया जा रहा है कि उनका कोई और भी योगदान नहीं हैं, यह दुष्प्रचार बेहद निंदनीय है एवं नई पीढ़ी को साहस, संघर्ष और सद्मार्ग से भटकाने जैसा है, इसलिए महामना मदन मोहन मालवीय के योगदान की संक्षिप्त चर्चा करना आवश्यक हो गया है।
परतंत्र भारत के प्रयाग में 25 दिसंबर 1861 को जन्मे मदन मोहन मालवीय प्रखर बुद्धि होने के कारण सात वर्ष की आयु में ही संस्कृत में व्याख्यान देने लगे थे। शिक्षा-दीक्षा के उपरांत वे इलाहाबाद उच्च न्यायालय में वकालत करने लगे, उनकी ख्याति और फीस पंडित मोती लाल नेहरू और सर सुन्दर लाल से ज्यादा ही थी। लार्ड रिपन स्थानीय स्वायत्त शासन स्थापित करने के कारण भारतवासियों में बेहद लोकप्रिय थे, वहीं अंग्रेज उनसे क्रांतिकारियों जितनी ही दुश्मनी मानते थे, वे इलाहाबाद आये, तो मदन मोहन मालवीय ने लोगों को संगठित कर उनका भव्य स्वागत किया, जिससे वे इलाहाबाद में बेहद लोकप्रिय हो गये और फिर वे स्वतंत्रता आंदोलन का अंग बनते चले गये। आंदोलन में पूर्ण योगदान देने के उद्देश्य से उन्होंने 1909 में वकालत को छोड़ दिया, लेकिन दस वर्ष बाद वे वकालत करने तब लौटे, जब चौरा-चौरी कांड के आरोपियों को मृत्यु दंड की सजा दी गई थी, उन्होंने 156 स्वतंत्रता सेनानियों की पैरवी की और उनमें से 150 को बरी करा लिया।
स्वतंत्रता आंदोलन में उनका महत्वपूर्ण योगदान रहा है। गांधी युग में वे गरम दल और नरम दल के साथ हिंदू और मुस्लिम नेताओं के बीच सेतु का कार्य करते थे। करुणामय हृदय, मनुष्य मात्र में अद्वेष, शरीर, मन और वाणी से संयमित, धर्म और देश के लिये सर्वस्व त्याग, उत्साह और धैर्य, नैराश्यपूर्ण परिस्थितियों में भी आत्म विश्वास पूर्वक दूसरों को असंभव प्रतीत होने वाले कर्मों का संपादन करते रहने वाले मदन मोहन मालवीय को संपूर्ण भारत के लोग महामना कहने लगे थे। एनी बेसेंट तक ने कहा था कि “मैं दावे के साथ कह सकती हूँ कि विभिन्न मतों के बीच, केवल मालवीयजी भारतीय एकता की मूर्ति बने खड़े हुए हैं।” 1921 में कांग्रेसियों और स्वयं सेवकों ने जेलें भर दीं, इससे अंग्रेज पीछे हटने को तैयार हो गये, महात्मा गांधी असहयोग आंदोलन से पीछे हटने को मान गये, इस बीच चौरा-चौरी कांड हो गया, जिसने अहिंसावादियों की पूरी रणनीति खराब कर दी। महात्मा गांधी को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया, उस समय मदन मोहन मालवीय की आयु 61 वर्ष थी, इसके बावजूद उन्होंने पेशावर से डिब्रूगढ़ तक तूफानी दौरा किया, उनके दौरे से जन-जन में आंदोलन और व्यापक स्तर से फैल गया। उन्होंने जगह-जगह धारा- 144 को तोड़ा, लेकिन उन्हें मिल रहे समर्थन से घबराई सरकार गिरफ्तार नहीं कर सकी। सविनय अवज्ञा आंदोलन के समय उन्हें 1930 में मुंबई में गिरफ्तार कर लिया गया, तब भारत रत्न भगवान दास ने कहा था कि मालवीय जी की गिरफ्तारी को स्वतंत्रता यज्ञ की पूर्णाहुति माना जाना चाहिए, इसी वर्ष अवैध घोषित की गई कार्यसमिति की बैठक में भाग लेने वे दिल्ली पहुंच गये, तो उन्हें पुनः गिरफ्तार कर नैनी जेल भेज दिया गया। उन्हें कांग्रेस के अधिवेशन में लाहौर में 1909 में, दिल्ली में 1918 और 1931 एवं कलकत्ता में 1933 में सभापति निर्वाचित किया गया, जबकि अन्तिम दोनों बार के सत्याग्रह से पहले ही वे गिरफ्तार किये जा चुके थे।
मदन मोहन मालवीय का योगदान पत्रकारिता में भी महत्पूर्ण है, उन्होंने कालाकाँकर के देशभक्त राजा रामपाल सिंह के अनुरोध पर उनके हिंदी-अंग्रेजी समाचार पत्र हिन्दुस्तान का संपादन किया। उन्होंने कांग्रेस के नेता अयोध्यानाथ के इंडियन ओपीनियन में सहयोग किया, इसी तरह साप्ताहिक अभ्युदय को संपादित किया, उस समय पायोनियर सरकार का समर्थक समाचार पत्र था, इसके समकक्ष उन्होंने दैनिक ‘लीडर’ को खड़ा कर दिया, साथ ही मर्यादा नाम की पत्रिका भी प्रकाशित की। 1924 में उन्होंने दिल्ली आकर हिन्दुस्तान टाइम्स को भी सुव्यवस्थित किया तथा सनातन धर्म को गति प्रदान करने के उद्देश्य से लाहौर से विश्वबन्द्य को प्रकाशित करवाया, उनके कार्यकाल में समाचर पत्रों के विषय और भाषा शैली ने नये कीर्तिमान स्थापित किये, जिसकी हर कोई प्रशंसा करता था।
हिंदी भाषा और देवनागरी लिपि के उत्थान में मदन मोहन मालवीय के योगदान का उल्लेख करें, तो राष्ट्र भाषा बनने की यात्रा हिंदी ने उनके प्रयासों से ही की है। 1835 में अंग्रेजी शिक्षा प्रचार का प्रस्ताव पास कर दिया गया, जिसके बाद अंग्रेजी के स्कूल खोले जाने लगे। मुगलकाल से अदालतों की भाषा फारसी चल आ रही थी। अंग्रेजी शासन काल में भी प्रारंभ में यही परम्परा चलती रही, किन्तु सर्वसाधारण जनता की फारसी भाषा और उसकी लिपि संबंधी कठिनाइयों को देखकर सन् 1836 में कम्पनी सरकार ने आज्ञा जारी की कि संपूर्ण अदालती काम देश की प्रचलित भाषाओं में होगा। हिंदी खड़ी बोली को अदालती भाषा स्वीकार कर लिया गया। अदालती कार्य हिंदी भाषा और लिपि में होने लगा, लेकिन कम्पनी सरकार भाषा संबंधी इस नीति पर चिरकाल तक न टिक सकी। एक साल के पश्चात् ही उत्तरी भारत के सब दफ्तरों की भाषा उर्दू कर दी गई, यह सब मुसलमानों के विरोध के कारण हुआ। हिंदी को अदालतों से बाहर निकालने के कार्य में मुसलमानों को सफलता मिल गई, अब वे इसे शिक्षा क्षेत्र से बाहर निकालने में प्रयत्नशील थे। जब सरकार स्कूलों और मदरसों में हिंदी के अनिवार्य रूप से पढ़ाये जाने के प्रस्ताव पर विचार कर रही थी, तब प्रभावशाली मुस्लिम सर सैय्यद अहमद खां ने उग्र विरोध किया, उनका अंग्रेज विशिष्ट सम्मान करते थे, सो विरोध मान लिया गया, इसी काल में राजा शिव प्रसाद ‘सितारे हिन्द’, राजा लक्ष्मण सिंह भी अड़ गये, तो कम्पनी सरकार को स्कूलों में हिंदी शिक्षा को स्थान देना पड़ा, लेकिन यह लोग भी अदालतों में देवनागरी लिपि को प्रवेश नहीं दिला सके, इस बीच 1848 में प्रयाग में हिंदी उद्धारिणी-प्रतिनिधि मध्य सभा की स्थापना हुई। मदन मोहन मालवीय ने इसमें खुल कर काम किया, व्याख्यान दिए, लेख लिखे और अपने मित्रों को भी भाग लेने के लिए उत्प्रेरित किया। उन्होंने नए सिरे से अदालतों में देवनागरी के प्रवेश का प्रयन्त किया। उन्होंने देवनागरी लिपि के पक्ष में हस्ताक्षर अभियान की योजना शुरू की, साथ ही हिंदी का सरकारी कामकाज में प्रयोग क्यों किया जाये, इसके तर्क देते हुए उन्होंने ‘कोर्ट कैरेक्टर एंड प्राइमरी एजूकेशन’ नाम की पुस्तक लिखी। उन्होंने विरोधी मुस्लिमों से कहा कि हिंदी और देवनागरी धर्म का विषय नहीं, बल्कि राष्ट्रीयता का विषय है, इसलिए वे भी साथ दें, इसके अलावा उन्होंने अध्यक्षीय भाषण में कहा था कि “उसे फारसी-अरबी के बड़े-बड़े शब्दों से लादना जैसे बुरा है, वैसे ही अकारण संस्कृत शब्दों से गूँथना भी अच्छा नहीं और भविष्यवाणी की कि एक दिन यही भाषा राष्ट्रभाषा होगी”, उनके प्रयासों से हिंदी अदालत में पहुंची और आज राष्ट्र भाषा है, उनके भाषा प्रेम का लोहा महात्मा गाँधी भी मानते थे।
मदन मोहन मालवीय देश भर में तमाम संस्थान स्थापित कराने के प्रणेता हैं। प्रयाग का भारती भवन पुस्तकालय, मैकडोनेल यूनिवर्सिटी, हिंदू छात्रालय और मिण्टो पार्क, ऋषिकुल हरिद्वार, गोरक्षा और आयुर्वेद सम्मेलन तथा सेवा समिति, ब्वॉय स्काउट तथा अन्य कई संस्थाओं को स्थापित अथवा प्रोत्साहित करने का श्रेय उन्हें जाता है, किन्तु उनकी पहचान काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से ही सिमट कर रह गई है। बीएचयू के वे प्रणेता हैं। काशी नरेश महाराज प्रभुनारायण सिंह का सबसे बड़ा योगदान है, लेकिन जनवरी 1906 में कुंभ मेले में मदन मोहन मालवीय ने देश भर से आयी जनता के बीच विश्वविद्यालय के संकल्प को दोहराया, तब एक वृद्धा ने उनको सर्वप्रथम एक पैसा चंदे के रूप में दिया, उस वृद्धा का योगदान भी नकारा नहीं जा सकता। डॉ. ऐनी बेसेंट के सहयोग के बिना भी संभवतः बीएचयू नहीं बन पाता। दरभंगा के राजा महाराज रामेश्वर सिंह को भी उन्होंने ही मनाया, जो पहले से काशी में “शारदा विद्यापीठ” की स्थापना करना चाह रहे थे।
वसंत पंचमी के दिन 14 जनवरी 1916 को काशी हिंदू विश्वविद्यालय का शिलान्यास हुआ था, जिसमें तमाम राजा-महाराजाओं के साथ महात्मा गाँधी भी उपस्थित रहे थे, लेकिन महात्मा गाँधी ने भाषण देते हुए सोने से लदे बैठे राजाओं के वैभव की कड़ी आलोचना की थी। 1 अक्टूबर 1917 से सत्र आरंभ हुआ था, लेकिन औपचारिक उद्घाटन 13 दिसंबर 1921 को प्रिंस ऑव वेल्स ने किया था। काशी विश्विद्यालय ने हिंदी और देवनागरी को स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। बीएचयू के प्रणेता भारत रत्न मदन मोहन मालवीय का और भी तमाम क्षेत्रों में महत्वपूर्ण योगदान है, उनके कार्यों को संक्षिप्त लेख में नहीं समेटा जा सकता, वे हर क्षेत्र में सक्रिय रहे, वे वाल्मीकियों के मोहल्लों में जाकर उन्हें मंत्र सिखाते थे, उन्हें दीक्षित करते थे, उनके कार्यों को लेकर ही सरकार उन्हें भारत रत्न की उपाधि दे चुकी है। प्रचार-प्रसार से दूर रहते हुए कर्म को महत्व देने वाले महामना मदन मोहन मालवीय को वामपंथी चंद स्वार्थों की पूर्ति के लिए बदनाम कर रहे हैं, जिसकी कड़े शब्दों में निंदा होना चाहिए।
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