बात राजनैतिक हित-लाभ की करें, तो बवाल के बावजूद दया शंकर की राजनैतिक हैसियत बढ़ी है और भाजपा को दोहरा नुकसान हुआ है। उत्तर प्रदेश के राजनैतिक हालात बाकी राज्यों से अलग हैं, यहाँ दलितों में जाटव अलग हैं और गैर जाटव अलग हैं, इसीलिए गैर जाटव नेता को ही गैर जाटव दलित स्वीकार करते हैं। मायावती पर की गई टिप्पणी संवैधानिक, सामाजिक और मानवीय दृष्टि से गलत हो सकती है, लेकिन राजनैतिक दृष्टि से लाभ भी होंगे और हानि भी। हाल-फिलहाल दया शंकर के विरुद्ध कार्रवाई करने वाली भाजपा को बड़ा नुकसान हुआ है और कानूनी कार्रवाई हुई, तो समाजवादी पार्टी को भी नुकसान होगा, क्योंकि बसपा के जाटव मतदाता न भाजपा को मिलने वाले और न सपा को, लेकिन दया शंकर के विरुद्ध कार्रवाई करने वालों से एक बड़ा वर्ग नाराज अवश्य हो जायेगा, उस वर्ग के लोग भाजपा और सपा, दोनों में हैं। दया शंकर पर कार्रवाई कर के भाजपा ने उस वर्ग को नाराज कर लिया है, लेकिन अब पुनः लुभाने का प्रयास कर रही है। यह राजनैतिक गहमा-गहमी सपा के लिए टर्निंग प्वाइंट कही जा सकती है। सपा दया शंकर के सहारे बसपा और भाजपा को मात देने की स्थिति में है, क्योंकि गेंद सपा के पाले में है। जो भी हो, फिलहाल दया शंकर नाम का खोटा सिक्का राजनीति में बेशकीमती हो गया है, इसलिए अब हर दल इस सिक्के को अपनी जेब में रखना चाहेगा।
बहुजन समाज पार्टी की राष्ट्रीय अध्यक्ष मायावती पर टिप्पणी कर हंगामे का कारण बने दया शंकर सिंह की राजनैतिक पृष्ठभूमि की बात करें, तो यूं कह सकते हैं कि वे ऐसा खोटा सिक्का हैं, जिसकी कीमत असली से ज्यादा रही है। वे राजनैतिक संबंधों के बल पर शुरू से ही दबंगई कर चर्चा में बने रहे हैं। जनाधार के मामले में उनकी स्थिति छात्र राजनीति के दौर से ही बेहद खराब रही है। वे छात्र संगठन में महासचिव के अलावा कभी कोई चुनाव नहीं जीते। छात्र संघ अध्यक्ष की कुर्सी पर जबरन बैठ गये थे, जिसे बाद में न्यायालय ने अवैध करार दे दिया था।
मूल रूप से बिहार राज्य के जिला बक्सर में स्थित गाँव छुटका राजपुर के रहने वाले दया शंकर सिंह उत्तर प्रदेश के जिला बलिया में स्थित गाँव मिड्ढी में बस गये हैं। दबंगई बढ़ाने और राजनैतिक महत्वाकाकांक्षाओं की पूर्ति के उददेश्य से उन्होंने लखनऊ विश्वविद्यालय में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के छात्र संगठन एबीवीपी से जुड़ कर राजनीति में कदम रखा। वर्ष- 1998 में दया शंकर सिंह महामंत्री चुने गये, जिसके सहारे वे जमकर दबंगई करने लगे। उस समय कल्याण सिंह मुख्यमंत्री थे और उनके संपर्क में चले गये, जिसके बाद उनकी दबंगई और बढ़ गई। पूर्वांचल में उस समय आतंक का पर्याय माना जाने वाले अभय सिंह से भी दया शंकर सिंह के करीबी संबंध थे, जिससे दया शंकर सिंह आसानी से स्थापित हो गये।
वर्ष- 1999 में वे छात्र संघ अध्यक्ष के लिए चुनाव लड़े और उनके मुकाबले में थे ब्रह्माबख्श सिंह गोपाल जी, दोनों की ओर से पैसा पानी की तरह बहाया गया, जमकर गुंडई की गई, पर प्रशासन दया शंकर के साथ था, इसके बावजूद दया शंकर चुनाव हार गये, पर शासन-प्रशासन में पैठ रखने वाले गोपाल जी की उम्मीदवारी निरस्त करा कर दया शंकर अध्यक्ष की कुर्सी पर बैठ गये। गोपाल जी न्यायालय की शरण में चले गये, निर्णय दया शंकर के विरुद्ध आया, पर तब तक कार्यकाल पूर्ण हो चुका था। अगले चुनाव में गोपाल जी विजयी हुए, तो उन्होंने दया शंकर सिंह के नाम के पत्थर यह कहते हुए हटवाने शुरू कर दिए कि चुनाव अवैध घोषित हो चुका है, इस बीच मुख्यमंत्री के चहेते दया शंकर सिंह ने स्वयं को लखनऊ विश्वविद्यालय की एग्जिक्यूटिव काउंसिल में नामित करा लिया, तो उनकी हैसियत और बढ़ गई। वे हर कार्यक्रम में मंचासीन होने लगे। स्वामी विवेकानंद की प्रतिमा लगाने को लेकर टकराव भी हुआ, इसी तरह गोपाल जी कई कार्यक्रम इसलिए निरस्त कराते रहे कि दया शंकर भी मौजूद रहेंगे।
दया शंकर की दबंगई का अंदाजा ऐसे लगाया जा सकता है कि मुख्यमंत्री की उपस्थिति में अपने शपथ ग्रहण समारोह में दया शंकर ने कार्यवाहक और दबंग वीसी प्रोफेसर रूपरेखा वर्मा को जमकर हड़काया था, लेकिन कल्याण सिंह ने कुछ नहीं कहा, इससे तंग आकर रूपरेखा वर्मा ने त्याग पत्र दे दिया था। उस दौर में विश्वविद्यालय में दो गुट थे, जिनमें एक का नेतृत्व अभय सिंह और दूसरे गुट का नेतृत्व अनिल सिंह वीरू करते थे, दोनों के बीच गैंगवार होती थी, कई कत्ल हुए। वर्ष- 1998 में वीरू गुट के धर्मेंद्र नाम के छात्र की हत्या हुई, जिसका मुकदमा दया शंकर सिंह सहित दो लोगों के विरुद्ध दर्ज कराया गया, लेकिन उस समय के मुख्यमंत्री कल्याण सिंह का चहेता होने के कारण पुलिस दया शंकर के करीब भी नहीं फटकी, साथ ही विवेचना क्राइम ब्रांच को दे दी गई, जिसके बाद पूरा मामला दबा दिया गया।
छात्र संघ के अध्यक्ष के सहारे दया शंकर भारतीय जनता युवा मोर्चा की ओर सरक लिए और फिर प्रदेश अध्यक्ष भी बने। वर्ष- 2007 में जनपद बलिया के सदर विधान सभा क्षेत्र से चुनाव लड़े, लेकिन मात्र 6500 के करीब मत मिले, मतलब जमानत तक नहीं बचा सके, जिससे दया शंकर की छवि खराब हुई, साथ ही कद भी घट गया। खुल कर बहुत ज्यादा बोलने वाली अवस्था नहीं रही, पर दया शंकर अंदर ही अंदर जुटे रहे और संबंधों के सहारे प्रदेश कार्यसमिति में जगह पा गये।
सूर्य प्रताप शाही प्रदेश अध्यक्ष थे, उस समय राजनाथ सिंह के बेटे पंकज सिंह को महासचिव बनाया गया, जबकि दया शंकर सचिव थे, इस पर दया शंकर ने वर्ष- 2012 में राजनाथ सिंह के विरुद्ध विगुल बजा दिया और पद से त्याग पत्र दे दिया, पर राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी ने दया शंकर को अहमियत नहीं दी। दया शंकर को कीमत भी चुकानी पड़ी, उन्हें वर्ष- 2012 के विधान सभा चुनाव में टिकट तक नहीं दिया। दया शंकर राजनाथ सिंह की शक्ति को भांप गये और टकराने की जगह संगठन में कार्य करते रहे, इस पर पार्टी ने उन्हें विधान परिषद सदस्य का टिकट दे दिया, पर जीत से दूर ही रहे, इस सब के बावजूद प्रदेश अध्यक्ष केशव मौर्य ने दया शंकर को न सिर्फ अहमियत दी, बल्कि प्रदेश उपाध्यक्ष बनाया, पर दया शंकर हद से ज्यादा मिले सम्मान को पचा नहीं पाये और भावावेश में आकर मायावती पर टिप्पणी कर गये, जिसके बाद पार्टी ने उन्हें निष्कासित कर दिया। राजनाथ सिंह उनके विरोध में नहीं होते, तो भी चुनावी वर्ष में दया शंकर पर कार्रवाई होनी ही थी।
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