राजनीति, धर्म, मीडिया और व्यापार की नहीं, बल्कि हर क्षेत्र में महिलायें यौन उत्पीड़न का शिकार हो रही हैं। जिस के कंधों पर महिलाओं की रक्षा का भार है, उस शासन-प्रशासन और न्यायालय में भी महिलाओं का यौन उत्पीड़न हो रहा है और इससे भी बड़े दुख की बात यह है कि दोषी के विरुद्ध सटीक और कड़ी कार्रवाई करने की जगह एक वर्ग आरोपी के साथ खड़ा होकर उसका बचाव ही नहीं करने लगता है, बल्कि पीड़ित लड़की की सार्वजनिक तौर पर छवि भी खराब करने का प्रयास करता है। असलियत में महिला के साथ यौन उत्पीड़न की जघन्य वारदात न हो, तब तक अधिकांश लोग घटना को गंभीर नहीं मानते। अधिकांश लोग तब तक गंभीर नहीं होते, जब तक महिला को बांध कर और उसके मुंह में कपड़ा ठूंस कर चार-छः लोगों ने बलात्कार न किया हो, इससे कम पर अधिकांश लोग सुन और समझ कर भी अनसुनी कर देते हैं या लड़की पर ही आरोप लगाते हुये यह कहते देखे जा सकते हैं कि क्या जरूरत थी बवाल करने की? चुप भी तो रह सकती थी, दबा भी तो सकती थी, अब झेलना ताउम्र इस अपमान को, इस तरह की बातों के चलते ही विकृत मानसिकता के लोग दुस्साहसी होते चले जाते हैं और शर्मिंदगी महसूस कर मुंह छुपाने की बजाए समाज के सामने आकर अपने पक्ष में तर्क गढ़ते नजर आते हैं। ऐसे लोगों को सही सज़ा न्यायालय दे ही नहीं सकता, इन्हें असली सज़ा समाज दे सकता है और जब तक सामाजिक सोच ऐसे अपराधियों के प्रति नहीं बदलेगी, तब तक यह लोग समूचे समाज को यूं ही चिढ़ाते रहेंगे।
रुचिका के गुनाहगार हरियाणा के पूर्व पुलिस महानिदेशक एस. पी. एस. राठौर की कोर्ट के बाहर दिखाई देने वाली भयानक मुस्कान लोग भूले नहीं होंगे। डीआईजी रहते हुये एस.पी.एस. राठौर ने रुचिका की ज़िंदगी तबाह कर दी थी और आरोपी होने के बावजूद उसे डीजीपी बना दिया गया था। इसी तरह पत्रकार शिवानी भटनागर हत्याकांड के आरोपी पूर्व आईपीएस आर.के. शर्मा को भी लोग अभी नहीं भूले हैं। हालांकि इसे अदालत बरी कर चुकी है। अदालत सुबूत के आधार पर निर्णय देती है और सुबूतों को अपने पक्ष में कर लेना, ऐसे लोगों के लिए बड़ा छोटा काम है, इसीलिए सामाजिक बहिष्कार ही इनके लिए बड़ी सज़ा कही जा सकती है।
ताज़ा घटना मेरठ की है। हापुड़ रोड स्थित पीटीएस में डीआईजी के पद पर तैनात प्रमोटिड आईपीएस देवी प्रसाद पर पीटीएस में ही तैनात महिला दारोगा अरुणा राय ने आरोप लगाया है कि गत 23 अप्रैल को आरोपी ने उसे अपने ऑफिस में बुलवाया और उसके साथ छेड़छाड़ की। पीड़ित दारोगा की शिकायत पर उत्तर प्रदेश की एडीजी सुतापा सान्याल को जांच सौंपी गई थी, जिनकी रिपोर्ट के आधार पर शासन ने प्रमुख सचिव गृह के माध्यम से मेरठ पुलिस को मुकदमा दर्ज करने का आदेश दिया था, जिस पर मेरठ के महिला थाने में पुलिस ने मुकदमा अपराध संख्या- 111/014 धारा 354, 354 (ए), 503, और 509 आईपीसी के रूप में दर्ज कर लिया।
छेड़छाड़ के आरोपी डीआईजी (पीटीएस) देवी प्रसाद को निलंबित कर दिया गया। बाद में मेरठ सीजीएम कोर्ट में आरोपी ने सरेंडर कर दिया और उसे कोर्ट से जमानत भी मिल गई। शर्मनाक हरकत पर ग्लानि महसूस करने की जगह देवी प्रसाद ने भी ऐसे अन्य तमाम आरोपियों की तरह ही बयान दिया कि इस आरोप से मैं बहुत आहत हूं। तीस साल की सेवा में कभी ऐसी बात सामने नहीं आई। 2000 में पीपीएस से आईपीएस का कैडर मिला और उत्कृष्ट सेवाओं के लिए मुझे राष्ट्रपति पदक मिल चुका है। स्वयं को निर्दोष साबित करने के लिए इतना ही कहता तब भी ठीक था पर, आगे बोला कि उसके विरुद्ध षड्यंत्र रचा गया है।
इससे पहले अरुणा को शिकायत और मुकदमा न लिखाने के लिए मनाने के प्रयास किए। अपमानजनक हरकत को वो भूलने को तैयार नहीं हुई, तो उसे डराया और धमकाया गया। जब वह किसी तरह नहीं टूटी, तो विवेचक सीओ मेरठ सवरणजीत कौर ने धारा 354 आईपीसी को हटा दिया, क्योंकि धारा 354 अजमानतीय धारा है, इसीलिए आरोपी देवी प्रसाद श्रीवास्तव को कोर्ट से तत्काल जमानत मिल गयी।
घटना की स्थिति पर गौर करें, तो धारा 354 को इस प्रकरण में हटाया ही नहीं जा सकता, जिससे स्पष्ट है कि विवेचक ने आरोपी के दबाव में ही धारा हटाई। धारा 354 बलपूर्वक लज्जा भंग करने पर लगाई जाती है। अरुणा के साथ आरोपी ने अपनी ओर खींचने में बल का प्रयोग ही किया। वह स्वयं हाथ पकड़ कर किस देती, तो इस हरकत पर आपत्ति ही क्यूँ करती? इसकी शिकायत ही क्यूँ करती? मुकदमा ही क्यूँ लिखाती? अंतिम सांस तक लड़ने को तैयार ही क्यूँ होती? जाहिर है कि घटना में पद और शरीर की शक्ति का दुरुपयोग किया गया है, इसलिए धारा 354 हटाना न्याय संगत नहीं कहा जा सकता।
खैर, हो सकता है कि अरुणा कोर्ट में आरोप सिद्ध करने में सफल हो जाये और कोर्ट आरोपी डीआईजी देवी प्रसाद को कुछ महीनों की सज़ा दे दे, यह भी हो सकता है कि गवाह और सुबूतों के अभाव में आरोपी ससम्मान बरी कर दिया जाये। सवाल यह नहीं है कि कोर्ट में क्या होगा? सवाल यह है कि समाज इस घटना और ऐसी अन्य तमाम घटनाओं में क्या भूमिका निभा रहा है? एक बार समाज उठ खड़ा हुआ, तो बड़े से बड़े दुस्साहियों के ऐसा कुछ करने के बारे में सोचने पर भी पैर काँपने लगेंगे। छेड़छाड़ और बलात्कार के आरोपी जमानत कराने के बाद या सज़ा काटने के बाद इसी समाज में इसलिए रह लेते हैं कि समाज उन्हें रहने देता है। यह संपूर्ण समाज के लिए शर्मनाक बात है कि छेड़छाड़ या बलात्कार का आरोपी भारी बहुमत से विधायक या सांसद चुन लिया जाता है। यौन उत्पीड़न की घटनाओं को लेकर जब तक समाज का यह नजरिया रहेगा, तब तक कभी रुचिका, कभी शिवानी, कभी गीतिका, कभी ज्योति और कभी अरुणा के रूप में नये-नये पात्र सामने आते रहेंगे।
यहाँ ध्यान देने की महत्वपूर्ण बात यह है कि ऐसे अपराधियों के विरुद्ध समाज स्वयं की भूमिका समझ कर सामने आये। समाज पीड़ित के साथ दया भाव न रखे, क्योंकि पीड़ित को दया की दृष्टि से देखना पीड़ित के साथ एक और अन्याय है। जैसे राह चलते कोई किसी पुरुष को थप्पड़ मार देता है, वैसे ही कोई किसी महिला की छाती पर भी हाथ मार सकता है। यौन उत्पीड़न को एक घटना और एक अपराध के रूप में ही देखें और उसका विरोध करें। लिंग और सहवास क्रिया से न जोड़ें। हर दिन कई तरह के अपराध होते हैं, वैसे ही इन अपराधों को देखें, पर यौन उत्पीड़न की घटना बाकी अपराधों से बड़ी है, क्योंकि अपराधी मानसिक तौर पर विकृत होता है, जो स्त्री को इंसान नहीं समझता।