स्त्रीवादी बहनें और मिथिलावासी मेरे इस लेख से दुखी होंगे, इसलिए पहले ही क्षमा मांग लेती हूँ… राम मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। एक मानव में जो गुण होने चाहिए उनमें वे सभी हैं। वे प्रेममयी हैं, दयालु हैं, आदरपूर्ण हैं, श्रेष्ठ पुत्र हैं, श्रेष्ठ भ्राता हैं, श्रेष्ठ राजा हैं, श्रेष्ठ मित्र हैं, सर्वगुण संपन्न हैं और इन्हीं कारणों से भगवान् के समान पूज्य हैं। आज उनकी किसी बात को लेकर आलोचना होती है तो वह केवल उनका पति धर्म है। एक धोबी के कहने से उन्होंने अपनी गर्भिणी पत्नी का त्याग कर दिया। एक सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति यदि केवल एक काम गलत कर रहा है तो हमें उसकी आलोचना करने से पूर्व क्या उसकी परिस्थितियों पर विचार नहीं करना चाहिए? सौ जगह सही होने वाला व्यक्ति एक जगह गलत क्यों है, आइये इस प्रश्न पर विचार करते हैं।
देवी सीता राम की केवल पत्नी ही नहीं, प्रेयसी भी थीं। विवाह पूर्व वाटिका में सीता को देखते ही राम के मन में उनके प्रति प्रेम जाग गया था। सीता से विवाह करने के बाद राम ने एक पत्नी व्रत धारण किया, जो उस समय बहुत बड़ी बात थी। उस समय बहुविवाह प्रचलित था और तब के राजा विवाह केवल अपनी वासना तृप्ति के लिए नहीं करते थे, बल्कि यह उनके अन्य राज्यों से संबंध का आधार भी होता था। राम की आजीवन एक पत्नी व्रती रहने की प्रतीज्ञा केवल और केवल सीता के प्रति अगाध प्रेम था।
वनवास होने पर राम सीता को साथ लेकर नहीं जाना चाहते थे, पर सीता की हठ से मजबूर होकर वे उन्हें साथ लेकर गए। लक्ष्मण की पत्नी उर्मिला और भरत की पत्नी मांडवी ने इस समय को पति वियोग में ही काटा पर सीता राम के साथ ही रहीं। इसे सीता की हठ न कहकर पति और सास-ससुर की अवज्ञा भी कहा जा सकता है, पर इस अवज्ञा में पति के प्रति अतिशय प्रेम था सो यह स्वीकार्य है। दूसरी बार सीता ने फिर हठ की और घनघोर जंगल में राम को सोने के हिरन के पीछे दौड़ा दिया। तीसरी हठ में उन्होंने अपनी सुरक्षा में तैनात लक्ष्मण को राम के पीछे जाने को कहा। लक्ष्मण के द्वारा भाई की अवज्ञा न करने को उन्होंने अन्यथा लिया और क्रोध में आकर उन्हें माँ के समान मानने वाले देवर पर यह लांछन तक लगा दिया कि उसे अपने भाई की चिंता नहीं है क्योंकि उसकी नीयत में खोट है। लक्ष्मण ने फिर भी भाभी की सुरक्षा के लिए लक्ष्मण रेखा खींची और सीता को उसे न लांघने की हिदायत देकर राम के पीछे चले गये।
सीता ने चौथी बार फिर अवज्ञा की और लक्ष्मण रेखा को लांघा। उन्होंने साधु वेश में आये रावण को कुटिया में बैठाया और उससे अपने सौंदर्य की प्रशंसा को मुग्ध भाव से सुना। परपुरुष के द्वारा की गयी प्रशंसा को सुनना आज भी सही नहीं कहा जा सकता। बाल्मीकि रामायण में रावण द्वारा की गयी प्रशंसा के वह शब्द हैं जिनके द्वारा वह सीता के नाक-नक्श से लेकर स्तनों तक की प्रशंसा करता है।
इस घटना के बाद सीता का हरण हो गया और वह लंका पहुँच गयीं। अब इस स्थिति में राम की मनोस्थिति की कल्पना कीजिये। प्रेयसी पत्नी का वियोग, कुल की मर्यादा पर लांछन, सीता की चिंता और विपत्तियों की इस सेना के बीच फंसे वे एक सेना विहीन वनवासी। पर उन्होंने हार नहीं मानी और सम्पूर्ण पौरुष की परिचय देते हुए लंका पर विजय प्राप्त कर सीता को मुक्त कराया। लंका विजय के पश्चात जब विभीषण की बेटी और पत्नी सीता को तैयार करके राम के सम्मुख लायीं तो राम ने कहा, सीते! मैंने तुम्हें अपने कुल की मर्यादा की रक्षा के लिए मुक्त करवाया है। अब तुमसे मेरा कोई सम्बन्ध नहीं। तुम मुक्त हो और जहाँ चाहे जा सकती हो। इसे राम का क्षोभ जानकर विभीषण ने तुरंत अग्नि परीक्षा कराई और सीता को राम के साथ कर दिया। राम का व्यवहार कहीं भी इतना छिछला नहीं है कि वे बिना ठोस कारण कुछ भी कह दें और फिर अपनी कही बात से फिर जाएँ। वे अपने कथन के प्रति गंभीर थे फिर भी सीता के आंसुओं और उनके ह्रदय में सीता के प्रति अगाध प्रेम ने उन्हें विवश कर दिया कि वे सीता को साथ लेकर अयोध्या आ गए। अयोध्या आने पर भी उन्हें सोते समय अक्सर रावण के हँसते हुए दस शीश दिखते। वे विचलित हो उठकर बैठ जाते। कोई भी व्यक्ति हँसता तो उन्हें लगता वह उन्हीं पर हंस रहा है। उन्होंने अपने राज्य में किसी के भी हंसने पर प्रतिबंध लगा दिया जिसे कुछ समय बाद हटा लिया गया। इन सब बातों से राम के ह्रदय में समाये दुःख के सागर का जिसे एहसास नहीं होता वह ह्रदयविहीन है।
कृष्ण ने भी राक्षस से मुक्त करवाई सोलह हज़ार राजकुमारियों से विवाह किया था, पर यहाँ स्थिति भिन्न है। सीता का हरण पत्नी बनने के बाद हुआ था। पत्नी का किसी और पुरुष के साथ रहना पति के लिए सबसे बड़ा अपमान है और सज्जन पुरुष बिना खाने के रह सकता है, इस अपमान के साथ नहीं। मर्यादा पुरषोत्तम राम भी इस अपमान को नहीं सह पाए। रावण को मारकर भी वे अपनी स्त्री के हरण के इस अपमान का बदला नहीं चुका पाए थे इसीलिए उन्हें सपने में उसके हँसते हुए सिर दिखते थे। जब तक सीता सामने रहतीं वे इस अपमान को भुला नहीं पाते। हारकर उन्होंने उसका त्याग कर दिया। इस त्याग में प्रेम कहीं कम नहीं हुआ क्योंकि वे जीवन के आखिरी क्षण तक एक पत्नी व्रती रहे, सीता की जगह किसी और को देना तो दूर, उनके जीवन में कोई भी नारी नहीं आई। इसके अलावा बाल्मिकी का आश्रम राम के राज्य के अंतर्गत ही आता था। चक्रवर्ती सम्राट और एक जनप्रिय राजा की इच्छा से ऊपर होकर ऋषि उनकी पत्नी को शरण दे पाए होंगे यह सोचा भी कैसे जा सकता है। बाद में सीता के बालकों को भी उन्होंने अपनाया। क्रोध में त्यागी गयी नारी के बालकों को अपनाना कैसे संभव हो पाता, आप सहज ही सोच सकते हैं। रामभक्त राम की इस मुद्दे पर आलोचना पर चुप रह जाते हैं, क्योंकि राम को सही ठहराने का अर्थ है सीता को गलत बताना। जो हमारे पूज्य की ह्रदय साम्राज्ञी है उसकी आलोचना कैसे करें? सीता द्वारा अनेक प्रकार से अवज्ञा करने पर भी राम ने उनकी आलोचना में एक शब्द नहीं कहा है। सीता देवियों में पूज्य हैं तो उसका कारण उनके सतीत्व के साथ-साथ उनके प्रति राम का प्रेम भी है। वे राम न होते, कोई कलयुगी पति होते तो निसंकोच कह देते कि, तुमने बहाने से मुझे और मेरे भाई को जंगल में भेजा ताकि तुम रावण के साथ भाग सको, तब सीता कैसे पूज्य हो पातीं? पर यह हमारी-आपकी नहीं मर्यादापुरुषोत्तम राम और परम सती साध्वी सीता की कथा है। राम की आलोचना करने का साहस हमारी अल्प बुद्धि कैसे कर पाती है, मैं कभी नहीं समझ पायी। न राम गलत हैं और न सीता। होनी के आगे सब विवश हैं। चार बहनों का विवाह एक ही मंडप में हुआ था और चारों ने अपने हिस्से का पति वियोग सहा। सीता उसे एक सीमा तक टाल पायीं, पर फिर उन्हें होनी से हारना ही पड़ा। विधि के इस लेखे के लिए राम को दोष देना मूर्खता है क्योंकि हम सब कभी न कभी विधि के इस लेखे के आगे हथियार डालते हैं।
2 Responses to "सवाल: क्यों किया राम ने सीता का त्याग?"