सरदार वल्लभभाई पटेल का जन्म 31 अक्टूबर 1875 को गुजरात के नाडियाड स्थित एक कृषक परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम झावेरभाई और माता का नाम लाडभाई था। उनके पिता पूर्व में करमसाड में रहते थे। उनके सत्रह वर्ष पिता के साथ खेतों में काम करते हुए ही बीत गये। माँ के प्रभाव के कारण वह बेहद धार्मिक थे और सप्ताह में दो दिन उपवास रखते थे। करमसाड के स्कूल में एक अध्यापक ने उनसे कहा था कि वह सवाल करने की बजाये, उन सवालों के उत्तर स्वयं खोजें, तो उनके लिए ज्यादा अच्छा रहेगा, जिससे वह अन्तर्मुखी हो गये।
पिता ने स्वावलंबी, माँ ने धार्मिक और अध्यापक के सानिंध्य ने उन्हें अन्तर्मुखी बना दिया, जिससे स्वतंत्रता के मायने उन्हें शीघ्र ही समझ आने लगे। उन्होंने 1857 के स्वतंत्रता आंदोलन में भी भाग लिया था। वह 14 किमी दूर पेटलाड स्थित स्कूल में पढ़ने जाते थे। रास्ते में एक बड़ा सा पत्थर गड़ा था, जिससे सब बच कर निकल जाते थे। एक दिन जल्दी आकर वह पत्थर को उखाड़ने लगे और जमीन के अंदर तक धंसे पत्थर को निकालकर ही माने। इस घटना से वह मित्रों के बीच और भी लोकप्रिय हो गये। इसके बाद वह नाडियाड के स्कूल में पढ़ने लगे और यहाँ एक तानाशाह अध्यापक के विरुद्ध खड़े हो गये। स्कूल में हड़ताल करा दी, जिससे वह और अधिक लोकप्रिय हो गये। इसी स्कूल के दूसरे अध्यापक नगर पालिका परिषद् के चुनाव में उतरे, तो उन्होंने सभी साथियों को लेकर प्रचार अभियान चलाया।
छात्र जीवन में ही उन्होंने वकालत करने का मन बना लिया था, लेकिन धन के अभाव में वह वकालत की पढ़ाई कर पाने में असमर्थ थे, इसलिए डिस्ट्रिक्ट प्लीडर बनने का निश्चय कर लिया और कुछ परिचित वकीलों से किताब मांग कर तैयारी करने लगे। परीक्षा उत्तीर्ण कर उन्होंने गोधरा में वकालत शुरू कर दी, इसी दौरान जावेरीबाई नाम की लड़की से माता-पिता ने उनका विवाह कर दिया। इसके बाद उन्होंने खेड़ा जिले के बोरसाड और आनंद में वकालत की, जहाँ उन्हें आपराधिक मामलों के वकील के रूप में विशेष ख्याति मिली।
उस समय बैरिस्टर बनना बेहद सम्मान की बात थी और वकालत के लिए आवश्यक भी था, इसलिए उन्होंने बैरिस्टर की पढ़ाई के लिए ब्रिटेन जाने के आवेदन कर दिया, पर बड़े भाई विट्ठलभाई ने भी आवेदन कर रखा था और वह हर हालत में जाना चाहते थे, तो परिवार की देखभाल के चलते वल्लभभाई पटेल नहीं गये।
वह काम के प्रति बेहद सचेत रहते थे। वर्ष 1908 में उनकी पत्नी आकस्मिक बीमार हो गईं, तो उन्हें तत्काल मुंबई लाना पड़ा। उनका ऑपरेशन होना था, पर वह उन्हें एडमिट करा कर हत्या के मुकदमे में बहस करने आ गए, इस बीच उनकी मृत्यु हो गई। अदालत में प्रवेश करते समय उन्हें तार मिला, पर उन्होंने किसी को नहीं बताया और बहस करने लगे। उस समय उनकी आयु 33 वर्ष थी। पत्नी की मृत्यु से दुखी वल्लभभाई पटेल अपनी बेटी मणिबेन और बेटा दह्याभाई के साथ काम में रम गये। इस बीच परिवार और मित्रों ने पुनर्विवाह का भी दबाव बनाया, पर उन्होंने किसी की नहीं सुनी।
उच्च शिक्षा के लिए वर्ष 1910 में वह ब्रिटेन चले गये। मिडिल टेंपल से उन्होंने रोमन लॉ की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। मिडिल टेंपल में यह नियम था कि छठे सत्र के अंत में अच्छे नंबर लाने वाले छात्र को अगले दो सत्रों की परीक्षा में छूट दे दी जाती थी। वल्लभभाई पटेल ने इक्वटी पेपर में इतने नंबर प्राप्त किये कि उन्हें पुरस्कार मिला, इसके बाद फाइनल परीक्षा में भी 50 पौंड का पुरस्कार मिला। बैरिस्टर पंजीकरण समारोह में डिस्टिंक्शन से परीक्षा उत्तीर्ण करने पर उनका नाम मेधावी छात्रों की सूची में शामिल कर उन्हें विशेष सम्मान दिया गया।
वल्लभभाई पटेल 13 फरवरी 1913 को भारत लौटे, तो मुंबई के मुख्य न्यायाधीश सर बेसिल स्कॉट ने उनका विशेष स्वागत करते हुए न्यायालय में नौकरी देने का प्रस्ताव रखा, जिसे उन्होंने ठुकरा दिया और अहमदाबाद आकर वकालत करने लगे। वर्ष 1919 तक वकालत में उन्होंने विशेष ख्याति और काफी धन अर्जित कर लिया।
वर्ष 1914 में एक नियम बना दिया गया था, कि नगर पालिकाओं में शक्तिशाली आईसीएस अधिकारी ही नियुक्त होगा और उसका वेतन-भत्ता भी काफी था, जिसे नगर पालिकायें दे पाने में असमर्थ थीं। उस समय अहमदाबाद में आयुक्त के पद पर शिलिडी नाम का व्यक्ति तैनात था, जिसका रवैया तानाशाही था। वल्लभभाई पटेल ने नगर परिषद् का चुनाव लड़ने का निर्णय कर लिया और वह निर्विरोध निर्वाचित हो गये, जिसके बाद उन्होंने आम आदमी के हित में कई सराहनीय कार्य किये और वह और अधिक लोकप्रिय हो गये। वह समाजसेवा में जुट गये, पर दलीय राजनीति से उनका कोई संबंध नहीं था।
महात्मा गांधी ने वर्ष 1917 में चंपारन की चुनौती स्वीकार कर ली। बिहार में नील की खेती करने वाले किसानों की समस्याओं को उठाने को लेकर महात्मा गांधी चर्चा में थे, साथ ही बनारस के हिन्दू विश्वविद्यालय में वायसराय के भव्य प्रदर्शन को लेकर महात्मा गांधी ने मोर्चा खोला, तो वल्लभभाई पटेल महात्मा गाँधी से प्रभावित हो गये। उन्होंने प्रथम गुजरात सम्मेलन में उत्साहपूर्वक भाग लिया और बेगार प्रथा की निंदा करते खत्म करने का निर्णय लिया। उन्होंने गुजरात सभा का सचिव पद भी स्वीकार कर लिया। वर्ष 1918 में महात्मा गांधी से प्रभावित होकर उन्होंने वैभव के सभी साधनों को त्याग दिया और सादगी से रहते हुए जनसेवा करने लगे। उस समय वल्लभभाई पटेल ने कहा था कि ‘गांधी जी से मुलाक़ात होने से काफी पहले से ही मैं राजनीति में रूचि लेने लगा था। किन्तु उस समय मुझे किसी भी राजनीतिक विचारधारा ने आकर्षित नहीं किया। निःसंदेह, शौकिया राजनीतिज्ञों की संख्या बहुत थी तथा बंगाल और महाराष्ट्र में अराजकवादी भी बहुत सक्रीय थे। इसके बाद राजनीतिक क्षेत्र में गांधी जी का पदार्पण हुआ और उनमें मुझे एक अनुकरणीय नेता की छवि दिखाई दी। गांधी जी ने भारत को अराजकता की ओर जाने से बचा लिया।’
महात्मा गाँधी से मिले अहिंसा के अमोघ शस्त्र का प्रयोग उन्होंने खेड़ा सत्याग्रह में किया। भयंकर अकाल के बावजूद अंग्रेज अफसर किसानों से राजस्व वसूल रहे थे और दंडात्मक कार्रवाई भी कर रहे थे, जिसके विरुद्ध महात्मा गाँधी के नेतृत्व में वल्लभभाई पटेल ने आन्दोलन शुरू किया, जो सत्याग्रह का रूप ले गया। अंत में कलेक्टर ने उनके प्रस्ताव को मान लिया।
इसके बाद वर्ष 1919 में रौलेट एक्ट के विरोध में उनके नेतृत्व में पूरा अहमदाबाद खड़ा हो गया। अंग्रेज विरोधी ‘हिन्द स्वराज’ और ‘सर्वोदय’ पत्रिकाएं खुलेआम बिकने लगीं। ‘सत्याग्रह बुलेटिन’ का प्रकाशन भी होने लगा। हर तरह से लोग विरोध कर रहे थे। मार्शल लॉ लागू कर दिया गया, पर वह शांति कायम करने में प्रशासन का सहयोग कर रहे थे, इसके बावजूद अंग्रेज अफसरों ने तमाम लोगों को नज़रबंद कर दिया और जेल भेज दिया, तो उनको वल्लभभाई पटेल ने जेल से बाहर निकाला। वर्ष 1920 में वह नवगठित गुजरात प्रादेशिक कांग्रेस समिति के प्रेसिडेंट चुन लिये गये और वह एक प्रतिष्ठित, लोकप्रिय व जनप्रिय नेता बन गये।
चौरा-चौरी कांड के बाद सिविल अवज्ञा आन्दोलन को लेकर सवाल उठने लगे, लेकिन वल्लभाई पटेल गुजरात में आन्दोलन जारी रखना चाहते थे, तभी उन्होंने दस लाख रूपये इकट्ठा कर गुजरात विद्यापीठ की स्थापना की और स्वदेशी वस्तुओं के प्रति लोगों को आकर्षित किया।
कांग्रेस में कुछ नेता सार्वजनिक निकायों में प्रवेश कर ब्रिटिश राज को खोखला करने के पक्ष में थे, लेकिन वल्लभभाई पटेल इसके विरोध में थे। उन्होंने कहा कि ‘मैं कोई नेता नहीं हूँ। मैं तो एक सैनिक हूँ। मैं एक किसान का बेटा हूँ और इस बात पर विश्वास नहीं करता कि केवल बातों से ही हम स्वतंत्रता प्राप्त कर सकते हैं। हमारे एक बार विधान मंडल में प्रवेश के बाद लोग स्वतंत्रता के लिए अपने जोश को भूल जायेंगे और लोग कांग्रेस के प्रति अपना विश्वास खो बैठेंगे।’ उनके यह कहते ही परिषद के विरोध में प्रस्ताव सर्वसम्मति से पारित कर दिया गया।
यूनियन जैक के स्थान पर राष्ट्रीय झंडा फहराने को लेकर अंग्रेज सरकार दमन करने लगी, तो आन्दोलन का रूप बढ़ता चला गया। राष्ट्रीय झंडे को लेकर आन्दोलन का केंद्र नागपुर बना, इसलिए वल्लभभाई पटेल ने गुजरात से स्वयं सेवकों को बड़ी संख्या में नागपुर भेजा और स्वयं भी गये। अंत में इस आन्दोलन में भी उनकी विजय हुई और इस दौरान गिरफ्तार लोगों को भी छुड़ा लिया गया।
गुजरात के बोरसाड में पुलिस डकैतों से मिल गई और जनता से दंडात्मक कर वसूला जाने लगा, इस बारे में उन्हें बताया गया, तो उन्होंने अपने स्तर से सच का पता लगाया और फिर विरोध में खड़े हो गये। तीन सप्ताह तक चले इस सत्याग्रह की खबर गवर्नर सर लेसली तक पहुंची, तो उन्होंने मंत्रिपरिषद के गृह सदस्य से जांच कराई, जिसमें साफ़ हो गया कि पुलिस गलत है, तो उन्होंने दंडात्मक कर वसूलने पर पूरी तरह रोक लगा दी। इसके बाद वर्ष 1917 में बारदोली में जमीन के लगान इस तरह बढ़ाए कि लगान में तीस प्रतिशत की अप्रत्याशित वृद्धि हो गई, जिससे किसान परेशान हो उठे। परेशान किसान वल्लभभाई पटेल के पास आये और पूरा प्रकरण बताया, तो वह बारदोली पहुँच गये। उन्होंने शांतिपूर्ण तरीके से विरोध शुरू करा दिया और पूरा प्रकरण मुंबई स्थित गवर्नर के संज्ञान में पहुंचा दिया, पर कोई निराकरण नहीं हुआ, तो उन्होंने विशाल सम्मेलन आयोजित कर यह ऐलान कर दिया कि जब तक अफसर पुरानी दर स्वीकार करने का निर्णय नहीं लेते, तब तक कोई लगान न दे। इस आन्दोलन के बाद किसानों ने उन्हें किसानों के सरदार की उपाधि दे दी और सब लोग उन्हें फिर सरदार ही कहने लगे। इसी आंदोलन ने उन्हें अखिल भारतीय स्तर का नेता बना दिया। मार्च 1929 में हुए काठियावाड़ सम्मलेन की उन्होंने अध्यक्षता की, फिर दिसंबर 1929 में उन्हें लाहौर कांग्रेस की अध्यक्षता सौंपी गई, तो उन्होंने पूर्ण स्वराज की प्राप्ति के लिए काम करने के कारण दायित्व लेने से मना कर दिया। अब वह गुजरात के साथ संपूर्ण भारत को ही अपना मानने लगे थे। वर्ष 1930 में दांडी यात्रा आरंभ होने से पहले उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। 30 अगस्त को पुनः गिरफ्तार कर तीन महीने को जेल भेज दिया गया और फिर दिसंबर 1930 में ही गिरफ्तार कर नौ महीने को जेल भेज दिए।
भगत सिंह और उनके साथियों को फांसी दिए जाने के बाद कराची में हुए कांग्रेस अधिवेशन में उन्होंने युवाओं के आक्रोश को सही बताते हुए कहा कि ‘मैं यहाँ एकत्रित सभी युवकों की भावनाओं के प्रति सहानुभूति रखता हूँ। उन्हें युवा भगत सिंह, सुखदेव सिंह, और राजगुरु को निष्ठुरतापूर्वक फांसी पर चढ़ाये जाने, जिससे देश में गहरा असंतोष व्याप्त है, के विरोध में अपना आक्रोश व्यक्त करने का पूरा अधिकार है। मैं उनके तरीके से सहमत नहीं हूँ। मुझे इसमें कोई संदेह नहीं है कि राजनीतिक हत्या अन्य किसी भी अपराध की तुलना में कम निंदनीय नहीं है, परन्तु भगत सिंह और उनके साथियों की देशभक्ति, साहस और बलिदान की मैं सराहना करता हूँ। उनके मृत्यु दंड को आजीवन कारावास में बदलने की विश्वव्यापी मांग को नज़रअंदाज़ करते हुए उन्हें फांसी पर चढ़ाये जाने की जिद पर अड़े रहना सरकार की निर्दयता और उसके विदेशी स्वरूप को दर्शाता है।’ उन्होंने यह भी कहा कि वह बीस वर्ष छोटे होते, तो उनका (युवाओं का) साथ देते।
इस सम्मलेन में प्रसिद्ध मौलिक अधिकार संकल्प पारित हुआ और महात्मा गांधी को गोलमेज सम्मलेन के लिए कांग्रेस का प्रतिनिधि चुना गया, लेकिन सम्मेलन की असफलता के चलते सरदार वल्लभभाई पटेल को जनवरी 1932 में गिरफ्तार कर लिया गया। मई 1933 तक वह यरवदा जेल में महात्मा गांधी के साथ रहे और चाय व धूम्रपान को त्याग दिया। इस दौरान उनकी माता लाडबाई और बड़े भाई विट्ठलभाई का निधन हो गया, लेकिन सशर्त रिहाई का प्रस्ताव ठुकराने के कारण वह अंत्येष्टि में भी नहीं जा सके। वर्ष 1994 में उनके खराब स्वास्थ्य को लेकर उन्हें रिहा कर दिया गया। वर्ष 1937 में उन्होंने प्रांतीय विधान सभाओं के चुनाव का संचालन किया, तो 11 में से 7 प्रान्तों में कांग्रेस सत्ता में आई। वर्ष 1934 में कांग्रेस की सहमति के बिना द्वितीय विश्व युद्ध में भारत को झोंक दिया गया, तो उनके कहने पर ही मंत्रिमंडलों ने त्याग पत्र दे दिया। वर्ष 1940 में उन्होंने व्यक्तिगत तौर पर सत्याग्रह चलाया, तो उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया, लेकिन खराब स्वास्थ्य के कारण ही 20 अगस्त 1942 को रिहा कर दिए गये। 8 अगस्त 1942 को कांग्रेस ने मुंबई में भारत छोड़ो प्रस्ताव पास किया, तो सरदार वल्लभभाई पटेल को फिर गिरफ्तार कर लिया गया और जून 1945 में रिहा किया। इसके बाद वर्ष 1946 में उन्होंने संघर्ष के रास्ते पर चलने को तत्पर नौसैनिकों को रोकने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इसके बाद वर्ष 1946 में ही कांग्रेस ने सत्ता संभाली, इस सरकार में सरदार वल्लभभाई पटेल को उप-प्रधानमंत्री और गृह मंत्री का दायित्व दिया गया। 2 जून 1947 को अंग्रेज सरकार ने विधिवत घोषणा की, कि 15 अगस्त 1947 को सत्ता हस्तांतरित कर दी जायेगी, जिसके बाद सरदार वल्लभभाई पटेल ने 564 देशी रियासतों को भारतीय संघ में मिलाने का चुनौती पूर्ण कार्य किया। हैदराबाद, कश्मीर, भोपाल और त्रावनकोर स्वयं स्वतंत्र राष्ट्र बनना चाहते थे, लेकिन सरदार पटेल पाकिस्तान के अलग होने की भरपाई शीघ्र करना चाहते थे, जिसमें कई समस्यायें थीं। कहा जाता है कि दुनिया के सब से अमीर हैदराबाद के निजाम को अमेरिका और फ्रांस के साथ प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू का भी समर्थन हासिल था, दूसरी ओर भोपाल का नवाब जिन्ना का बेहद करीबी था, साथ ही जिन्ना का प्रयास था कि रियासतें भारत में न मिलें, क्योंकि भारत आर्थिक, भौगोलिक और राजनैतिक स्तर पर कमजोर रहता, तो पाकिस्तान बाद में भी अपना सीमा विस्तार आराम से करता रहता।
नये और शक्तिशाली भारत के वास्तविक निर्माता और संस्थापक, महान क्रांतिकारी सरदार वल्लभभाई पटेल 15 दिसंबर 1950 को अपना कार्य पूर्ण कर चले गये। उनके निधन पर विश्व भर के नेता शोक में डूब गये। श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए उस समय लार्ड माउंटबैटन ने कहा था कि, ‘उनकी छवि भारत के जनमानस पर सदैव अंकित रहेगी। सन 1947 और 1948 में रियासत मंत्रालय के प्रभारी के रूप में उनका महान कार्य इतिहास में लिखा जायेगा, क्योंकि उन्होंने रियासतों की समस्या को भली-भांति समझकर तथा उनके शासकों का पूर्ण सम्मान करते हुए अत्यंत ही जटिल समस्या का जिस प्रकार समाधान किया, वैसा आज तक कोई भी राजनीतिज्ञ नहीं कर पाया था।’
‘मैनचेस्टर गार्जियन’ ने लिखा था कि ‘पटेल के बिना गांधी जी के विचारों का व्यवहारिक प्रभाव कम पड़ता और नेहरू के आदर्शवाद का क्षेत्र संकुचित हो जाता। पटेल स्वतंत्रता-संग्राम के नायक ही नहीं थे, बल्कि वे स्वातंत्रयोत्तर भारत के निर्माता भी थे। एक ही व्यक्ति एक क्रांतिकारी और कुशल राजनीतिज्ञ के रूप में प्रायः सफल नहीं होता है। किन्तु सरदार पटेल अपवाद थे।’
सरदार वल्लभभाई पटेल का संपूर्ण जीवन संघर्षमय रहा। वह आडंबरहीन और महत्वाकांक्षा रहित व्यक्ति थे। वह निःस्वार्थ भाव से आम आदमी और देश के हित में कार्य करने को तत्पर रहते थे। देश हित के विपरीत वह किसी की कोई बात सुनते तक नहीं थे। हैदराबाद के विलय को लेकर भी ऐसा ही हुआ था। मंत्रिपरिषद की बैठक में सरदार पटेल को जवाहर लाल नेहरू ने चिढ़ाने के लिए सांप्रदायिक व्यक्ति कह दिया था, जिससे उनके बीच संबंध लगभग पूरी तरह खराब हो गये थे। सरदार पटेल ने नेहरू से बोलना तक बंद कर दिया था, पर वह हैदराबाद का विलय करा कर ही माने, जिससे जवाहर लाल नेहरू सरदार पटेल से व्यक्तिगत तौर पर ईर्ष्या करने लगे और ईर्ष्या इस हद तक बढ़ गई कि वह सरदार पटेल की मृत्यु के बाद भी सहज नहीं हुए। 1947 बैच के एक आईएएस अधिकारी एमके नायर ने अपने संस्मरण ‘विद नो इल फीलिंग टू एनीबॉडी’ में लिखा है कि सरदार पटेल के निधन के बाद जवाहर लाल नेहरू ने दो नोट जारी किये, जिसमें कहा गया कि सरदार पटेल की गाड़ी उनके कार्यालय में भेज दी जाये तथा सरदार पटेल की अंत्येष्टि में जाने वाले लोग अपने खर्चे पर जायें, ऐसे महान देश भक्त को किसी एक शब्द में बांधा जाये, तो उन्हें सच्चा ‘कर्मयोगी’ मानना, उनका सबसे अच्छा सम्मान माना जायेगा। वाकई, विलक्षण कर्मयोगी थे सरदार वल्लभभाई पटेल, लेकिन व्यक्तिवादी, दलवादी, क्षेत्रवादी, जातिवादी और धर्मवादी नहीं थे। वह आम आदमी के हितैषी और सच्चे देशभक्त थे, तभी उनके साथ इतिहास में न्याय नहीं किया गया, क्योंकि लोग गुणगान भी स्वार्थ सिद्धी के लिए ही करते हैं। महात्मा गांधी के बाद जमीन पर अगर किसी ने सर्वाधिक संघर्ष किया, तो वह सरदार वल्लभभाई पटेल ही थे, साथ ही नये भारत के निर्माण में उनका योगदान महात्मा गांधी से भी अधिक है, ऐसे सरदार वल्लभभाई पटेल का सम्मान और लोकप्रियता हाल के वर्षों में भारत में लगातार कम हुई है। सरदार वल्लभभाई पटेल राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के स्वयं सेवक नहीं थे, लेकिन स्वयं सेवकों को वे बहुत पसंद हैं। उन्होंने राजनीति में कदम कांग्रेस के सहारे रखा और अंत तक कांग्रेसी ही रहे, तो भी वे कांग्रेस की पसंद नहीं हैं। सरदार वल्लभभाई पटेल के मामले में दलीय विचारधारा का घालमेल हो जाता है।
खैर, वह देश के महान नेता थे। महान क्रांतिकारी थे और जिस भारत में हम रह रहे हैं, वह उसके निर्माता थे, इसलिए उन्हें वो सम्मान मिलना ही चाहिए। नरेंद्र मोदी ने सरदार वल्लभभाई पटेल को लोकप्रियता के उसी स्थान पर पहुंचा दिया है, जिस स्थान पर उन्हें होना चाहिए था। उनका नाम आज टीवी, अखबार, फेसबुक, ट्वीटर, हर जगह नज़र आ रहा है। युवा उन्हें गूगल पर सर्च कर रहे हैं। उनके बारे में जानने का प्रयास कर रहे हैं। यह अच्छी बात ही कही जायेगी। नरेंद्र मोदी का अभिप्राय चाहे जो हो, पर सरदार वल्लभभाई पटेल को अब भूलने नहीं देना।