समाजवादी पार्टी के युवा मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के नेतृत्व में चल रही उत्तर प्रदेश सरकार की समीक्षा करने का समय अब आ गया है। सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव का कहना है कि उत्तर प्रदेश की जनता ने उन्हें मुख्यमंत्री बनाने के लिए वोट दिये थे, उनका यह कहना भ्रम ही कहा जाएगा, क्योंकि चुनाव पूर्व ही प्रदेश की जनता को साफ पता था कि इस बार तेजतर्रार, अनुशासित और युवा अखिलेश यादव ही मुख्यमंत्री बनेंगे। अखिलेश यादव पर विश्वास करते हुये ही प्रदेश की जनता ने समाजवादी पार्टी को प्रचंड बहुमत दिया, क्योंकि सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव के जनता कई शासन देख व भोग चुकी है। जातिवाद, चमचावाद, मनमानी और अपराध की अति के चलते उनके शासन को गुंडाराज की संज्ञा दी जाती रही है। गुंडाराज से निजात पाने के लिए ही उत्तर प्रदेश की जनता ने पिछली बार बसपा सुप्रीमो मायावती को पूर्ण बहुमत दिया था।
मायावती के पिछले शासन से अखिलेश यादव के शासन की तुलनात्मक समीक्षा की जाये, तो कानून व्यवस्था के मुद्दे पर मायावती शासन निःसन्देह बेहतर था। बसपा शासन के दौरान पुलिस में आत्मविश्वास स्पष्ट दिखता था, लेकिन आज पुलिस बेबस और लाचार नज़र आ रही है। कमियाँ मायावती शासन में भी थीं, पर आम आदमी को सर्वप्रथम आज़ादी चाहिए, भयमुक्त वातावरण चाहिए। किसान को चाहिए कि वह देर शाम तक जंगल में निर्भय होकर काम कर पाये। व्यापारी चाहता है कि सुबह से शाम तक ही नहीं, बल्कि देर रात तक निडरता के साथ अपने प्रतिष्ठान पर बैठा रहे, पर आज उत्तर प्रदेश में ऐसा वातावरण नज़र नहीं आ रहा। शाम ढलते ही किसान जंगल से घर भाग आते हैं। व्यापारी नकदी लेकर चलने से काँपने लगा है। माना गुंडे और बदमाशों को सरकार प्रायोजित नहीं कर रही, पर सवाल उठता है कि अंकुश लगाने का काम सरकार का ही है, जो अब तक विफल साबित हुई है। प्रदेश की जनता ने जिस विश्वास के साथ अखिलेश यादव की पुकार पर सपा प्रत्याशियों को वोट दिया था, वह विश्वास फिलहाल टूटता नज़र आ रहा है।
मायावती सरकार में सब से बड़ी कमी निकाली जाए, तो वह भ्रष्टाचार ही था, इसके अलावा अन्य बिंदुओं पर वह अब तक के सपा शासन से कहीं बेहतर थी। नौ-दस महीने के अखिलेश यादव के कार्यकाल को देखते हुये जनता की धारणा बदली नज़र आ रही है। अब जनता असुरक्षा के आगे भ्रष्टाचार को स्वीकृति देती नज़र आ रही है। आम आदमी का मानना है कि सरकार चाहे जिसकी हो, उसकी जेब में रुपया नहीं आने वाला। सरकार नहीं खाएगी, तो अफसर खा जाएँगे। अफसर नहीं खाएँगे, तो बाबू खा जाएँगे और बाबू भी ईमानदार हो जाएँ, तो ठेकेदार खा जाएँगे। मतलब, कोई न कोई तो खा ही जाएगा। कुल मिला कर आम आदमी का कोई लाभ नहीं होने वाला, ऐसे में आम आदमी चाहता है कि कम से कम उसके प्राण और सम्मान ही बचा रहे, पर अखिलेश सरकार में प्राण और सम्मान भी दांव पर लगे हुये हैं। तूफान की गति से प्रदेश में अपराध बढ़ रहे हैं और मुख्यमंत्री अखिलेश यादव बयान देने से अधिक कुछ नहीं कर पा रहे हैं, जिससे आम आदमी की चिंताएँ बढ़नी स्वाभाविक ही हैं।
शहरी और ग्रामीण क्षेत्र की सोच और वातावरण हमेशा भिन्न रहता है, लेकिन आज शहरी क्षेत्र के हालात ग्रामीण क्षेत्र से भी अधिक डरावने हैं, क्योंकि सपा सरकार बनने के बाद से ही प्रदेश के कई बड़े शहर दंगों की गिरफ्त में है। मथुरा, बरेली, प्रतापगढ़, गाजियाबाद, इलाहाबाद, फैजाबाद, बाराबंकी सांप्रदायिक वारदातों की चपेट में आ चुके हैं, जिसकी चिंता मुख्यमंत्री की कार्यप्रणाली में नज़र नहीं आ रही, जबकि खुफिया विभाग ने ऐसी वारदातों की सूचनाएँ पहले ही दे दी थीं। इससे भी बड़े दुःख की बात यह है कि वारदातों पर अंकुश लगाने की दिशा में कड़े कदम उठाने की बजाए मुख्यमंत्री वारदातों को साजिश करार दे रहे हैं। यहाँ सवाल यह उठता है कि प्रदेश के मुख्यमंत्री को जब साजिश की जानकारी है, तो साजिशकर्ता के विरुद्ध कार्रवाई क्यूँ नहीं जा रही,? सवाल यह भी है कि उन्हें साजिश की जानकारी वारदातों से पहले क्यूँ नहीं हो पाई? उनके इस बयान से साफ है कि मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठने के बाद अखिलेश यादव पूरी तरह राजनीतिज्ञ बन गए हैं, तभी सांप्रदायिक वारदातों की आग में वोट पका रहे हैं। उनके ऐसे बयानों से उन्हें किसी खास वर्ग की सहानुभूति मिल सकती है, जिससे आने वाले लोकसभा चुनाव में एक-दो सीट का लाभ भी मिल सकता है, लेकिन इस लालच में वह यह भूल रहे हैं कि ऐसा करने से आम जनता के बीच उनका विश्वास लगातार घट रहा है। प्रदेश की जनता ने उन पर विश्वास कर पूर्ण बहुमत भले ही पाँच वर्षों के लिए दिया था, पर वह जनता के उस विश्वास पर खरा उतरकर दशकों तक शासन कर सकते थे। उस शुभ अवसर को वह धीरे-धीरे गंवा रहे हैं, पर विश्वास कायम रखने का उनके पास अभी पर्याप्त समय है। फिलहाल जनता के हाथ में करने के लिए कुछ नहीं है, इसलिए मायूस जनता अखिलेश यादव की ओर कुछ बेहतर करने की आस लिए निहारती नज़र आ रही है।
3 Responses to "विश्वास पर खरे नहीं उतरे अखिलेश यादव"