– बिधायक आबिद रज़ा की अनदेखी से बढ़ रहा रोष
– मुस्लिमों में नगर निकाय चुनाव का भी दर्द बरकरार
बदायूं के मुस्लिम मतदाता समाजवादी पार्टी से बदला लेने को आतुर नज़र आ रहे हैं। लोकसभा चुनाव का इंतज़ार प्रत्याशियों से अधिक इस बार मुस्लिम मतदाता कर रहे हैं, लेकिन आँखों पर पड़े सत्ता के पर्दे के कारण सपा के वरिष्ठ नेताओं को मुस्लिमों की नाराजगी का अहसास तक नहीं हैं। इस अनदेखी की कीमत सपा प्रत्याशी को लोकसभा चुनाव में चुकानी पड़ सकती है।
बदायूं सदर से बिधायक आबिद रज़ा कहने भर को ही समाजवादी पार्टी के हैं। अधिकारी उन्हें विपक्षी नेता के बराबर भी तवज्जो नहीं दे रहे हैं। राजनैतिक दृष्टि से उनकी हैसियत छुटभैये नेताओं के बराबर भी नहीं बची है। समाजवादी पार्टी के जिला अध्यक्ष बनवारी सिंह यादव का गुट पूरे तंत्र पर इस तरह हावी हो गया है कि आबिद रज़ा के समर्थक त्राहि-त्राहि कर रहे हैं। पुलिस के थाने और चौकी तक में उनकी सिफारिश पर ख़ास गौर नहीं किया जा रहा है। आबिद रज़ा के साथ किये जा रहे इस बर्ताव से आम मुसलमान वाकिफ़ है, जिससे अन्दर ही अन्दर लोकसभा चुनाव में बदला लेने की आम राय बनती जा रही है।
वैसे बदायूं के मुस्लिम मतदाताओं का सपा से मोह नगर निकायों के चुनाव में ही भंग हो गया था, क्योंकि बिधायक आबिद रज़ा का राजनैतिक कद न बड़े, इसलिए सपा के ही ख़ास नेताओं ने उनकी पत्नी को अध्यक्ष पद का चुनाव हराने में प्रमुख भूमिका निभाई थी। सपा नेताओं में आपस में ही युद्ध छिड़ा हुआ है, जिसका लाभ विरोधी खुल कर उठा रहे हैं। नगर निकाय चुनाव में भाजपा प्रत्याशी ने हाथ मार लिया और अब डीपी यादव मौज ले रहे हैं।
बसपा की सरकार में सत्ता का दुरुपयोग करते हुए डीपी यादव ने अपने साले भारत सिंह यादव की पत्नी पूनम यादव को जिला पंचायत अध्यक्ष की कुर्सी पर विराजमान करा कर वर्षों पुराने चेतना सिंह यादव के राज़ को ध्वस्त कर दिया था। चेतना सिंह कूटनीति के शहंशाह कहे जाने वाले नरेश प्रताप सिंह की पत्नी और स्वर्गीय राजेश्वर सिंह की बहू हैं, इस परिवार से जिलाध्यक्ष बनवारी सिंह यादव का शुरू से ही छत्तीस का आंकड़ा रहा है। जिला पंचायत चुनाव में बनवारी सिंह यादव ने वर्षों पुरानी ईर्ष्या के चलते यह अफवाह फैला दी कि पूनम यादव को चेतना सिंह ने समर्थन दे दिया। हाईकमान तक यह अफवाह पहुंचा कर उन्होंने नरेश प्रताप सिंह और चेतना सिंह को पार्टी से बाहर करा दिया। बाद में बिधायक आबिद रज़ा के साथ नरेश प्रताप सिंह ने अपने संबंधों के माध्यम से हाईकमान के संज्ञान में सही जानकारी पहुंचाई, जिससे पार्टी में वापसी तो हो गई, लेकिन राजनैतिक स्तर पर इस दंपति को भी शून्य कर रखा है, जबकि यह दंपति अविश्वास प्रस्ताव लाकर अपनी हार का बदला लेने को आतुर है। पिछले दिनों सैफई महोत्सव में नरेश प्रताप सिंह ने बहुमत से अधिक सदस्यों को साथ ले जाकर सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह के समक्ष पेश भी किया, लेकिन बनवारी सिंह यादव जिला पंचायत में नरेश प्रताप सिंह का पुनः कब्जा आसानी नहीं होने देंगे, जिसका खुला लाभ एक बार फिर विरोधी पूनम यादव को ही मिलेगा।
बसपा शासन में ही सत्ता का दुरुपयोग कर डीपी यादव ने बनवारी सिंह यादव को भी बुरी तरह हराया था। विधान परिषद् के चुनाव में डीपी ने अपने भतीजे जितेन्द्र यादव को मैदान में उतारा था। बाद में सपा की सरकार आने पर बनवारी सिंह यादव को सरकार ने एमएलसी नामित कर दिया, जिससे उनका खोया हुआ सम्मान वापस आ गया। अब वह मंत्री मंडल में शामिल होने के लिए रात-दिन एक किये हुए हैं, इस सबका दुष्परिणाम भी सपा को लोक सभा में ही भुगतना पड़ सकता है।
बसपा का मुस्लिम प्रत्याशी सपा को कर सकता है साफ
पिछले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के सलीम शेरवानी के चलते सपा प्रत्याशी धर्मेन्द्र यादव को मुसलमानों ने वोट नहीं दिए, लेकिन विजय धर्मेन्द्र यादव को मिली, जिससे सपा नेताओं को इस बात का अहंकार भी है कि पिछ्ला चुनाव बिना मुस्लिमों के जीत लिया और इस बार तो उनकी सत्ता है, लेकिन सत्ताधारी नेता यह भूल रहे हैं कि जनता सत्ताधारी सरकार को ही धराशाई करती है, साथ ही यह भी भूल रहे हैं कि हर बार एक जैसे समीकरण नहीं बनते। पिछले चुनाव में भाजपा का सिंबल न होने का लाभ सपा को मिला था, इस बार बसपा ने किसी मुस्लिम प्रत्याशी को मैदान में उतार दिया, तो उसे कल्पना में भी हरा पाना मुश्किल नज़र आ रहा है।
छात्र संघ चुनाव में सपा साफ़
उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव के नेतृत्व में सपा की सरकार बनने के पीछे युवाओं की बड़ी भूमिका मानी जाती है। बदायूं में हुए छात्र संघ चुनाव में सपा का एक भी अध्यक्ष विजयी नहीं हुआ है, जिसे खतरे की घंटी माना जा रहा है, लेकिन सपा नेता लोकसभा चुनाव को भूल मलाईदार पद हथियाने में ही जुटे नज़र आ रहे हैं।
सवर्ण नेताओं को भी नहीं मिला लाभ
पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा प्रत्याशी न होने के कारण भाजपा के वोट सपा प्रत्याशी को मिल गये थे, साथ ही कई सवर्ण नेता सपा के साथ खुल कर आ गये थे, लेकिन सरकार आने के बाद उन्हें ख़ास महत्व नहीं दिया जा रहा है। मलाईदार पद बनवारी सिंह यादव छांट-छांट कर अपने परिजनों को ही दे रहे हैं, जिससे ऐसे तमाम नेता इस बार सपा को न लड़ाने का मन बना चुके हैं।