इस में कोई दो राय नहीं हैं कि बरेली में आज हुई समाजवादी पार्टी की रैली आजमगढ़ और मैनपुरी में हुई समाजवादी पार्टी की ही रैलियों की तुलना में बड़ी थी, लेकिन समाजवादी नेता अपनी रैलियों की तुलना भारतीय जनता पार्टी के प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी और गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी से कराना चाहते हैं। सपा सुम्रीमो मुलायम सिंह यादव ने अपने भाषण के दौरान यह खुलासा भी किया कि आगरा की रैली के चलते आजम खां ने आज का दिन निश्चित किया, जबकि वह पक्ष में नहीं थे। बता दें कि रैली पहले 11 नवंबर को आयोजित होनी थी, जिसकी तारीख बढ़ा कर 21 नवंबर की गई, इसलिए सपा और नरेंद्र मोदी की रैलियों की तुलना करना आवश्यक हो जाता है।
बरेली के इस्लामियां इंटर कॉलेज का मैदान लगभग भरा था, इसके अलावा जाम और पार्किग स्थल की दूरी के चलते असंख्य लोग मौके पर पहुँच भी नहीं पाये। मैदान और मैदान पर न आने वाले लोगों को एक साथ माना जाये, तो सत्तर और अस्सी हजार के बीच में भीड़ कही जा सकती है, क्योंकि इस्लामियां इंटर कॉलेज के मैदान की क्षमता पचास हजार लोगों को बैठाने से अधिक की नहीं है। इस मैदान में साठ हजार आदमी तब आ पाते हैं, जब उन्हें जमीन पर बैठाया जाता है, जबकि आज आम लोगों के लिए कुर्सियों की और वीआईपी के लिए सोफों की व्यवस्था की गई थी, इसके अलावा बैरिकेटिंग ने भी जगह भरी दिखने में मदद की, इस सब के बावजूद मैदान में पचास हजार और मैदान के बाहर तीस हजार के आसपास लोगों को माना जा सकता है, ऐसे में इस रैली को ऐतिहासिक या बंपर कैसे लिख दें?
माना लोगों में किसी भी तरह का डर नहीं है, यह भी माना कि लोगों में किसी भी तरह का लालच नहीं हैं, इसके बावजूद समाज के बड़े हिस्से में सत्ताधारी दल और उसके नेताओं-कार्यकर्ताओं के प्रति एक लिहाज होता है, उस लिहाज की दृष्टि से सपा की यह रैली बंपर नहीं थी, क्योंकि जनता स्वतः चल कर नहीं आई थी। रैली स्थल पर जनता को लाने की जिम्मेदारी पार्टी पदाधिकारियों, सांसदों, विधायकों, प्रत्याशियों और कार्यकर्ताओं को दी गई थी। यह भी महत्वपूर्ण है कि भीड़ लाने की जिम्मेदारी किसी आम नेता ने नहीं, बल्कि सपा सुप्रीमो के भतीजे बदायूं के सांसद धर्मेन्द्र यादव ने दी थी। सपा के आम नेताओं ने रैली आयोजित की होती, तो रैली को आम नज़र से देखा जाता। चूँकि रैली के संयोजक धर्मेन्द्र यादव थे, तो साफ़ है कि मुलायम परिवार ने ही रैली आयजित की और जिस रैली को मुलायम परिवार ही आयोजित करे, उस रैली में सत्तर-अस्सी हजार भीड़ होने के क्या मायने होने चाहिए?, यह खुद ही तय कीजिये।
अब बात रैली के परिणाम की करते हैं, तो निःसंदेह मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने मुख्यमंत्री के स्तर का भाषण दिया। उन्होंने जाति-धर्म, क्षेत्र और लिंग से ऊपर उठ कर विकास की बात की। नरेंद्र मोदी की रैलियों को बढ़ा-चढ़ा कर बताने का आरोप लगाते हुए प्रो. रामगोपाल यादव मीडिया की आलोचना से अधिक और कुछ नहीं कह पाये। वरिष्ठ सपा नेता और उत्तर प्रदेश के कैबिनेट मंत्री आजम खां पूरे भाषण में हिन्दू-मुस्लिम से ऊपर ही नहीं उठ पाये। उन्होंने मुजफ्फरनगर दंगों के आरोपी संगीत सोम को आगरा में भाजपा की रैली में सम्मानित करने की आलोचना करने के साथ ही मंच पर मौजूद बरेली में हुए दंगों के आरोपी आईएमसी के अध्यक्ष तौकीर रज़ा को रूहेलखंड क्षेत्र में सपा को मजबूत करने की जिम्मेदारी निभाने की बात कही। हालांकि वह अच्छे वक्ता हैं और बीच-बीच में भावुकता का पुट लगाने का भी प्रयास किया। जाति, धर्म से ऊपर उठने की भी बात कही, लेकिन नरेंद्र मोदी का नाम लिए बिना जहरीले तीर भी छोड़े। नरेंद्र मोदी के पिल्ला मरने वाले पुराने बयान को आज उन्होंने फिर ताज़ा कर दिया। बोले- हम पिल्ला हैं, तो वे हमारे भाई हैं, वे बड़े हैं, पिल्ले से बड़े वाले हैं … वे ऐसे ही मुद्दों पर अधिक बोले। असलियत में वह खुद के और नरेंद्र मोदी के बीच मीडिया वार चाहते हैं, इससे उनका प्रदेश और देश की राजनीति में कद बढ़ेगा। वह अच्छी तरह जानते हैं कि उनके कहे शब्द कहाँ चोट पहुंचाते हैं, तभी उन्होंने भाषण की शुरुआत में ही नरेंद्र मोदी का नाम लिए बिना कहा कि बहराइच की रैली में कहा गया कि उत्तर प्रदेश में सिर्फ रामपुर में ही सब से अधिक बिजली आती है, इससे यह साफ़ है कि मुसलमानों की छोटी से छोटी बात पर कितनी पैनी नज़र रखी जा रही है। दो-चार घंटे बिजली अधिक मिल गई, तो इतनी सी बात जिसे नहीं पच रही, वो शख्स हिन्दुस्तान का बादशाह बनने के बाद क्या हमें पचा पायेगा?, साथ ही यह जोड़ कर उन्होंने मुसलमानों में डर पैदा किया कि बर्बता की दास्ताँ नागपुर में लिखी जाती है और सपा को जिताने की अपील कर दी।
अंत में सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव ने एक भटके हुए व्यक्ति की तरह भाषण दिया। हिंदी अनिवार्य करने के मुद्दे पर आज वह पलट गये। बोले- उन्होंने हिंदी को अनिवार्य करने की बात नहीं कही, बल्कि सभी क्षेत्रीय भाषाओँ को बढ़ावा देने की बात कही थी। केंद्र सरकार को समर्थन दे रहे हैं, फिर भी उसे आज उन्होंने डरपोक करार दिया। बोले- सीमा पर कोई जवानों के सिर काट ले जाता है, तो कोई सीमा में अंदर घुस जाता है, साथ ही अपनी तारीफ़ की कि जब वह रक्षामंत्री थे, तो चीन की सीमा के चार किमी अंदर कैंप लगाया था। यह भी कहा कि आज दुनिया में कोई देश भारत का दोस्त नहीं है। उन्होंने आज एक अपनी तरफ से खुलासा भी किया कि जवाहर लाल नेहरू का देहांत चीन के आक्रमण करने के सदमे में ही हुआ। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की कुर्सी को मजबूती देने वाले मुलायम सिंह यादव ने आज उन्हें बेचारा भी बताया। बोले कि प्रधानमंत्री को कमजोर किया जा रहा है। राहुल गांधी का नाम लिए बिना बोले कि उन्हीं की पार्टी का प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार अध्यादेश फाड़ देता है, ऐसे में प्रधानमंत्री को इस्तीफा दे देना चाहिए था।
मुख्यमंत्री न बनने का भी दुःख झलक आया। बोले- वोट उनके नाम पर मांगे गये और मुख्यमंत्री अखिलेश को बनाना पड़ा, इतना सुनते ही मंचासीन सब नेता हंस पड़े, तो फिर हँसते हुए उन्होंने बात संभाल ली, लेकिन यह शब्द यूं ही नहीं निकले थे। उनके मन में कहीं न कहीं यह बात है कि मुख्यमंत्री उन्हें ही होना चाहिए था। इसके बाद रैली को चुनावी जनसभा का रूप देते हुए उन्होंने बरेली सहित आसपास के सभी प्रत्याशियों को नाम ले कर बुलाया और उन्हें जिताने की अपील करते हुए बोले कि इतनी सीट जरूर दिला देना कि उनके बिना केंद्र में सरकार न बने। बोले- मंत्री या प्रधानमंत्री बनने के लिए नहीं, बल्कि आम आदमी के हित के लिए हम सरकार में भागीदारी चाहते हैं। उनके एक-एक वाक्य पर मन में स्वतः ही सवाल उठ रहा था कि गरीब, शोषित और आम आदमी की लड़ाई संसद से सड़क तक आप आज ही लड़ रहे होते, तो जनता आपकी स्वतः ही दीवानी होती, इसके अलावा सवाल यह भी उठता है कि डरपोक और बेचारे प्रधानमंत्री को कुर्सी पर बनाये रखने के साथ महंगाई, भ्रष्टाचार और ग़रीबों की संख्या बढ़ाने में सरकार की सहयोगी समाजवादी पार्टी दोषी क्यूं नहीं है?
संबंधित ख़बरें पढ़ने के लिए क्लिक करिए लिंक