मोहम्मद अली जौहर यूनिवर्सिटी। यह नाम सुनते ही अधिकाँश लोगों के मन में राजनैतिक विवाद के चलते यूनिवर्सिटी की नकारात्मक छवि उभर आती है। मुस्लिम महापुरुष के नाम से स्थापित की गई है, इसलिए अधिकाँश लोग मुस्लिम यूनिवर्सिटी के तौर पर नजरिया बनाये हुए हैं, यह सब जानने की उत्सुकता में ही मेरा मन यूनिवर्सिटी और उसके अंदर के वातावरण को देखने के लिए काफी समय से व्याकुल था।
मोहम्मद अली जौहर यूनिवर्सिटी, रामपुर और इसके संस्थापक आजम खान, यह तीनों आपस में ऐसे जुड़ गये हैं कि किसी एक का नाम लेते ही मन में तीनों की तस्वीर उभर आती है। यूनिवर्सिटी की चर्चा रामपुर में स्थापना को लेकर है, लेकिन रामपुर से करीब 12 किमी दूर स्वार-बाजपुर रोड पर स्थित है। रामपुर से बाजपुर की ओर हॉट मिक्स रोड पर चलते हुए लगता है कि यूनिवर्सिटी विवाद जैसी ही होगी, लेकिन मुख्य दरबाजे पर पहुंचते ही वो छवि पचास प्रतिशत से अधिक स्वतः खत्म हो जाती है। मुख्य द्वार बहुत अच्छे से बनाया गया है। अंदर प्रवेश करते ही सुरक्षा गार्ड रोक लेता है और लगातार कई सवाल करता है। छात्र-छात्राओं, स्टाफ और मजदूरों के अलावा अंदर जाने की अनुमति नहीं है। मैं किसी तरह चला गया, पर गार्ड ने प्रशासनिक भवन तक जाने की ही अनुमति दी और पीछे से नज़र भी रखे रहा। मुझे यह सब देख कर बहुत अच्छा लगा। दस कदम आगे बढ़ते ही एक बड़े से खंबे के ऊपर बड़ी सी पुस्तक बनी नज़र आई, जो पवित्र कुरान की प्रतीक होगी, जिसे मैं ऐसे ही मानता हूँ, जैसे कोई हिंदू संस्थापक माँ सरस्वती की प्रतिमा स्थापित करता।
प्रशासनिक भवन में पहुँचने के बाद मेरी मुलाकात प्रशासनिक अधिकारी अकबर मसूद से हुई। मैं पत्रकार हूँ और अंदर तक आ गया, इस पर वह थोड़े हैरान नज़र आये, पर कुछ कहा नहीं। एक मिनट के बाद ही अच्छे से बात करने लगे। मेरे मन में यूनिवर्सिटी को लेकर जितने भी सवाल थे, वह सब उनसे मैंने कह दिए। उन्होंने जवाब भी दिये। 250 एकड़ क्षेत्र में फैली यूनिवर्सिटी पर गर्व करते हुए उन्होंने कहा कि अभी शुरुआत है, फिर भी यहाँ 1200 से अधिक पंजीकरण हो चुके हैं, जिनमें 1000 छात्र और 250 से अधिक छात्रायें हैं, साथ ही हिंदू-मुस्लिम बराबर के ही आसपास हैं। इंजीनियरिंग, कॉमर्स, मैनेजमेंट और पैरामेडिकल की ही सुविधा है अभी, इसलिए यह संख्या कम नहीं है। बोले- एडमिशन को लेकर किसी तरह का कोई भेदभाव नहीं अपनाया जाता और न ही मैनेजमेंट की ओर से ऐसा कोई इशारा किया गया है। स्टाफ में भी पचास प्रतिशत के ही आसपास हिंदू हैं, जिसमें रामराज आज़ाद कॉमर्स के डीन हैं। अकबर मसूद से बात करने के बाद उठा, तो मैंने उनसे कैंपस देखने की अनुमति ले ली। मेरी सबसे पहली नज़र लड़के और लड़कियों के कपड़ों पर गई, तो बरेली, मुरादाबाद, लखनऊ और दिल्ली की तरह ही नज़र आये। लड़के जींस, पेंट-शर्ट और लड़कियां सलवार-सूट में दिखने पर मुझे और भी अच्छा लगा। बाकी चारों ओर फिलहाल बड़े पैमाने पर निर्माण कार्य चल रहा है, जिससे संभावना है कि एक-दो वर्ष बाद पुनः आने पर पहचान करना थोड़ा मुश्किल होगा। अब आप भी महसूस कर रहे होंगे कि विवाद लखनऊ और दिल्ली के बीच है, जो मीडिया में दिखता रहा है। यूनिवर्सिटी के आसपास भी विवाद जैसा कुछ नहीं है। शुद्ध शैक्षिक वातावरण है और आशा है कि सब कुछ ठीक चलता रहा, तो आने वाले समय में यह विश्व विद्यालय देश के प्रमुख विश्व विद्यालयों के बीच अपनी प्रमुख पहचान बनाने में कामयाब होगा।
कौन हैं मोहम्मद अली जौहर?, यह सवाल तमाम लोगों के मन में है। चूँकि आज़ादी के बाद के इतिहास पर कुछ ख़ास लोगों का ही कब्जा रहा है, इसलिए मोहम्मद अली जौहर के नाम के पन्नों तक लोगों का पहुंचना ही बंद हो गया है। हालांकि वह किसी परिचय के मोहताज नहीं है। मोहम्मद अली जौहर वो नाम है, जिसके साथ जुड़ कर लोग ख्याति प्राप्त कर लेते हैं। वह रामपुर के ही मूल निवासी थे। उनका जन्म 18 दिसंबर 1878 में हुआ था। उनके पिता का देहांत बचपन में ही हो गया था, इसलिए उनका पालन-पोषण और शिक्षा की ज़िम्मेदारी उनकी मां ने ही निभाई। उर्दू और फ़ारसी की प्रारंभिक शिक्षा घर पर हुई, इसके बाद उन्होंने बरेली से हाईस्कूल किया और बीए की शिक्षा अलीगढ़ में ली। उनके बड़े भाई शौकत अली की इच्छा थी कि मोहम्मद अली जौहर इंडियन सिविल सर्विसेज़ की परीक्षा पास करें, इसलिए उन्हें ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय भेज दिया गया, लेकिन मौलाना असफल रहे। लंदन से वापस लौट कर वह अलीगढ़ में उस्ताद की हैसियत से अपनी सेवाएं देना चाहते थे, पर विवश होकर उन्हें रामपुर में उच्च शिक्षा अधिकारी के पद पर काम करना पड़ा। उन्होंने रियासत बड़ौदा में भी काम किया। उनकी रूचि पत्रकारिता में भी थी, तभी 1910 में उन्होंने कलकत्ता से एक अंग्रेज़ी अख़बार कामरेड निकालना शुरू कर दिया। 1912 में वह दिल्ली आ गए और यहां से उन्होंने 1914 में उर्दू दैनिक हमदर्द निकालना शुरू किया। बाद में इंग्लैंड से मुस्लिम आउटलुक तथा पेरिस से एको डील इस्लाम नामक पत्रिकाएं भी निकालीं।
मौलाना मोहम्मद अली जौहर के राजनीतिक जीवन पर नज़र डालें, तो भारतीय इतिहास में उनका प्रमुख स्थान है। ख़िलाफ़त आंदोलन में तुर्की के मुसलमानों के समर्थन में उन्होंने भाषण दिया, जिससे बाद भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की नींव मजबूत हुई। वह राष्ट्रवादी थे और मरते दम तक अंग्रेज़ों से लड़ते हुए कहते रहे कि देश आज़ाद करो या फिर मरने के बाद दो गज़ ज़मीन अपने देश में दे दो। वह किसी गुलाम देश में मरना नहीं चाहते थे और उन्होंने अपना वचन पूरा करके दिखा भी दिया। वह यह भी नहीं चाहते थे कि हिंदू -मुसलमान एक-दूसरे की जान के दुश्मन बन जाएं, लेकिन दुर्भाग्यवश उन्हें ऐसे दिन भी देखने पड़े। अपनी ओर से उन्होंने पूरी कोशिश की कि दोनों संप्रदाय एक हो जाएं और अपनी शक्ति एक-दूसरे के ख़िलाफ़ बर्बाद करने के बजाय उसे अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ लगाएं। राष्ट्रीय एकता के लिए उन्होंने अनगिनत प्रयास किए। वह खुल कर कहते थे कि अगर, गाय की कुर्बानी देने से हिंदुओं की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचती है, तो वे उससे गुरेज़ करें और गाय की जगह किसी दूसरे जानवर की कुर्बानी करें। इसी तरह वह हिंदुओं से कहते थे कि मुहर्रम का महीना मुसलमानों के लिए मातम और ग़म का महीना होता है, इसलिए वे मुसलमानों की भावनाओं का सम्मान करते हुए कम से कम वहां पर ख़ुशियां मनाने से परहेज़ करें, जहां मुसलमानों का आम तौर पर आना-जाना रहता है।
रामपुर का नवाब खानदान अंग्रेजों का करीबी थी। आज़ादी से पहले मौलाना पर रामपुर में घुसने का प्रतिबंध लगाया गया था। उनकी माँ बीमार थीं, लेकिन नवाब ने मौलाना को रामपुर में नहीं घुसने दिया। देश आज़ाद हुआ, तो नवाब परिवार ने रियासत का तत्काल विलय कर दिया और कांग्रेस व सरकार के चहेते बन गये, जिससे मौलाना के मुकाबले फिर शक्तिशाली हो गये। जामिया मिलिया को लेकर कहा जाता है कि मौलाना रामपुर में स्थापित करना चाहते, लेकिन नवाब खानदान के मुकाबले उनकी चली नहीं। अंग्रेजों के साथ मौलाना नवाब खानदान से भी लगातार लड़ते रहे।
मौलाना जौहर चाहते थे कि उनके इस मिशन में सभी नेता कोशिश करें, लेकिन उन्हें निराशा हाथ लगी, तो उन्होंने कांग्रेस से ही किनारा कर लिया। कांग्रेस एक ऐसी राजनीतिक पार्टी थी, जिस पर मौलाना को बहुत विश्वास था, लेकिन बाद में कुछ ऐसे लोग इसमें शामिल हो गए, जिनके कारनामे संदेह के घेरे में आते थे। इससे पहले वह खिलाफत आंदोलन, मुस्लिम लीग और कांग्रेस के अध्यक्ष रहे, जो स्वयं में एक रिकॉर्ड है। मुस्लिम लीग की ओर से लंदन के गोलमेज सम्मेलन में भाग लेने गये, तभी 4 जनवरी, 1931 को उनकी मृत्यु हो गयी। उन्हें येरुशलम में दफनाया गया था।
मौलाना मोहम्मद अली जौहर और रामपुर के नवाब परिवार के बीच के संबंध समझते ही यह समझना आसान हो जाता है कि आजम खान मोहम्मद अली जौहर के दीवाने क्यूं हैं? मौलाना निःसंदेह महापुरुष हैं, उन्होंने देश हित में बड़े कार्य किये हैं। जेल गये। शिक्षा के क्षेत्र में भी उनका बड़ा योगदान है, इस सब के बीच आजम खान और मौलाना का स्थानीय दुश्मन एक ही है, यह बड़ा कारण है। जो काम मौलाना नहीं कर सके, वह सब अब आजम खान करना चाहते हैं। नवाब परिवार की राजनीति का बड़ा आधार स्कूल और कॉलेज हैं, जिस पर आजम खान का एक दम सटीक वार हुआ है, इसीलिए कांग्रेसी नवाब परिवार ने यूनिवर्सिटी की राह में रोड़ा डालने में कोई कसर बाक़ी नहीं छोड़ी। नवाब परिवार के सामने पहले मौलाना थे और अब आजम खान, लेकिन आजम खान की इस चाल में नवाब परिवार को अपने सामने दो दुश्मन इकट्ठे नज़र आने लगे। जिस नवाब ने मौलाना को कभी रामपुर में नहीं घुसने दिया, उसी नवाब के वंशजों ने आजम खान को भी राजनैतिक तौर पर मिटाने की तमाम कोशिशें की हैं, लेकिन नवाब परिवार से भिड़ते-भिड़ते वह ऐसा सैलाब बन गये हैं, जिसमें वह अब नवाब वंश का अस्तित्व तक मिटाने को आतुर और व्याकुल नज़र आते हैं। रामपुर के प्राचीन गेट तोड़ने का आदेश इसी प्रक्रिया का एक हिस्सा भर है।
खैर, जो भी हो। राजनैतिक लोग हैं, तो अपने-अपने अस्तित्व को लेकर लड़ेंगे ही। जनता की नज़र में जो श्रेष्ठ होगा, वह रह जायेगा और जो स्वार्थी होगा, वह किसी के मिटाए बिना भी मिट जायेगा। इस सबके बीच सबसे अच्छी बात यही है कि इतिहास के पन्नों के ढेर में दबते जा रहे मौलाना मोहम्मद अली जौहर को आजम खान ने पुनः लोकप्रियता के शिखर पर बैठा दिया है। जामा मस्जिद के शाही इमाम सैयद अहमद बुखारी ने पिछले दिनों कहा था कि आजम खान यूपी के नरेंद्र मोदी हैं। उनके कहने का आशय जो भी हो, पर आजम खान ने जिस तरह से मौलाना को पुनः ख्याति दिलाई है, उसी तरह से नरेंद्र मोदी ने सरदार वल्लभ भाई पटेल को लोकप्रियता के शिखर पर पहुंचाया है, ऐसे में उनका कहना सही भी लगता है, पर कहने वालों का क्या है, वे तो यह भी कह सकते हैं कि नरेंद्र मोदी गुजरात के आजम खान हैं।