जीत का कोई निश्चित नियम नहीं होता। जीत जैसे मिल जाये, वही नियम हो जाता है। बात राजनीति की हो, तो राजनीति में तो जीत का वैसे ही कोई नियम नहीं चलता। राजनीति में भी अति महत्वाकांक्षी लोगों का जमावड़ा हो, तो किसी भी तरह के नियम की बात करना भी समय खराब करने जैसा ही है।
कांग्रेस और भाजपा के विरुद्ध संयुक्त मोर्चा बनाने के प्रयास हर चुनाव से पूर्व होते रहे हैं। तमाम प्रयासों के बावजूद अति महत्वाकांक्षी नेताओं का जमावड़ा होने के कारण ही संयुक्त मोर्चा बनते-बनते रह जाता है या बन कर टूट जाता है। संयुक्त मोर्चे की तरह ही उत्तर प्रदेश के कुछ बाहुबलियों, धनाढ्य और आपराधिक प्रवृति के नेताओं ने मिल कर पिछले दिनों एक एकता मंच बनाया था। इस मंच ने 36 उम्मीदवारों की सूची भी जारी कर दी थी। बलिया लोकसभा क्षेत्र से कौमी एकता दल के राष्ट्रीय अध्यक्ष अफजाल अंसारी, सलेमपुर क्षेत्र से भासपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष ओमप्रकाश राजभर, गाजीपुर से राष्ट्रीय परिवर्तन दल के राष्ट्रीय अध्यक्ष डीपी यादव, कुशी नगर से महान दल के राष्ट्रीय अध्यक्ष केशवदेव मौर्य, आजमगढ़ से जनवादी के राष्ट्रीय अध्यक्ष ओमप्रकाश चौहान, भदोही से सर्वजन विकास पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष राम सागर बिंद, अंबेडकर नगर से फूलन सेना के राष्ट्रीय अध्यक्ष गोपाल निषाद, लालगंज से महादलित संघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष रामदहिन पासवान को प्रत्याशी बनाया गया था। इनके अलावा घोसी से मुख्तार अंसारी, वाराणसी से इनकी पत्नी अफशां अंसारी, चंदौली से शशिप्रताप सिंह, देवरिया से उमेश मणि त्रिपाठी, कैसरगंज से डॉ. संतोष पांडेय, महाराजगंज से कविलास राजभर, डुमरियागंज से गंगाराम निषाद और राबर्ट्सगंज से नक्सली लालब्रत कोल को उम्मीदवार बनाने की घोषणा की गई थी।
इस एकता मंच के सूत्रधार बाहुबलि और धनबलि के रूप में कुख्यात डीपी यादव ही कहे जा रहे थे। डीपी यादव चुनाव से पूर्व ऐसे ही शिगूफे छोड़ने को लेकर जाने जाते हैं। डीपी यादव पिछला लोकसभा चुनाव बदायूं लोकसभा क्षेत्र से बसपा के टिकट पर लड़े थे। उस समय डीपी यादव सहसवान विधान सभा क्षेत्र से विधायक थे और उससे पहले विधान सभा चुनाव अपने कथित राष्ट्रीय परिवर्तन दल से ही लड़े थे। बसपा की पूर्ण बहुमत की सरकार बनने पर अपने दल का बसपा में विलय कर दिया था, इसके बाद हुए वर्ष 2012 के विधान सभा चुनाव में बसपा ने डीपी यादव को प्रत्याशी नहीं बनाया, तो डीपी यादव ने अपना राष्ट्रीय परिवर्तन दल पुनः सक्रीय कर लिया, तब से डीपी यादव अपनी ढपली बजा रहे हैं और अब लोकसभा चुनाव में अपने जैसे ही कुछ बाहुबलियों को जमा कर एकता मंच के सहारे नगाड़ा बजाने का प्रयास कर रहे थे।
डीपी यादव का एक सूत्रीय कार्यक्रम किसी भी तरह सत्ता में भागीदारी पाते रहना है, इसलिए वे किसी के लिए भले ही अछूत हों, पर उनके लिए कोई अछूत नहीं है। वर्ष 2012 में घोर प्रतिद्वंदी दल सपा में जाने के लिए आजम खां के रामपुर स्थित घर तक पहुंच गये थे, लेकिन मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने पार्टी में लेने से स्पष्ट इंकार कर दिया था। उस समय डीपी यादव की काफी फजीहत हुई थी, लेकिन राजनैतिक जमीन की तलाश में वह लगातार जुटे रहे। फिलहाल एक ओर डीपी यादव एकता मंच बना रहे थे, तो दूसरी ओर कांग्रेस और भाजपा से भी बात कर रहे थे और सफल भी रहे। डीपी यादव का कोई निश्चित वोट बैंक नहीं है, इसलिए किसी खास नेता या दल को वह अपने साथ रखते हैं। फिलहाल उनके साथ महान दल है और महान दल के सहारे उनका कांग्रेस से समझौता हो गया है। कांग्रेस ने समझौते के तहत बदायूं, एटा और नगीना लोकसभा क्षेत्र दे दिए हैं, जिससे एकता मंच खंड-खंड हो गया है। एकता मंच को पिछड़ों और समाजवादियों का सच्चा मंच बताने वाले डीपी यादव खुद सब से पहले उसे छोड़ कर भागे हैं। वह खुद बदायूं लोकसभा क्षेत्र से चुनाव लड़ने की घोषणा भी कर चुके हैं।
डीपी यादव शुरू से ही अति महत्वकांक्षी रहे हैं। अपराध की दुनिया रही हो या व्यापार या फिर राजनीति। वह आगे निकलने के लिए कुछ भी करने को तत्पर रहते हैं। डीपी यादव के व्यक्तित्व को जानने-समझने के लिए उनके पिछले जीवन पर नज़र डाली जाये, तो जिला गाजियाबाद स्थित नोएडा में सेक्टर-18 के पास एक गाँव है शरफाबाद। यहाँ धर्मपाल यादव नाम का एक आम आदमी था, जो जगदीश नगर में डेयरी चलाता था और रोजाना साइकिल से दूध दिल्ली ले जाता था। अति महत्वाकांक्षी धर्मपाल यादव 1970 के दशक में शराब माफिया बाबू किशन लाल के संपर्क में आया और यही शख्स धर्मपाल यादव से धीरे-धीरे डीपी यादव के रूप में कुख्यात होता चला गया। शराब माफिया किशन लाल, डीपी यादव को एक दबंग गुंडे की तरह इस्तेमाल करता था। बाहुबलि डीपी शराब की तस्करी में अहम भूमिका निभाता था। तस्करी से होने वाली अकूत आमदनी के चलते डीपी यादव कुछ समय बाद ही किशन लाल का पार्टनर बन गया। इन दोनों का गिरोह जोधपुर से कच्ची शराब लाता था और पैकिंग के बाद अपना लेबल लगा कर उस शराब को आसपास के राज्यों में बेचता था।
डीपी के गिरोह में जगदीश पहलवान, कालू मेंटल, परमानंद यादव, श्याम सिंह, प्रकाश पहलवान, शूटर चुन्ना पंडित, सत्यवीर यादव, मुकेश पंडित और स्वराज यादव वगैरह प्रमुख थे। 1990 के आसपास डीपी की कच्ची शराब पीने से हरियाणा में लगभग साढ़े तीन सौ लोग असमय काल के गाल में समा गए थे। इस मामले में जांच के बाद दोषी मानते हुये हरियाणा पुलिस ने डीपी यादव के विरुद्ध चार्जशीट भी दाखिल की थी। पैसा, पहुँच और दबंगई के बल पर धीरे-धीरे डीपी यादव अपराध की दुनिया का स्वयं-भू बादशाह हो गया। दो दर्जन से अधिक आपराधिक मुकदमों के बाद राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए घातक सिद्ध होने लगा, तो वर्ष 1991 में इस पर एनएसए के तहत कार्रवाई हुई। कानूनी शिकंजा होने के बावजूद डीपी ने 1992 में अपने राजनैतिक गुरु दादरी क्षेत्र के विधायक महेंद्र सिंह भाटी की हत्या करा दी, जिसमें इसके विरुद्ध सीबीआई ने आरोप पत्र दाखिल किया। इस हत्या के बाद गैंगवार शुरू हुई, जिसमें डीपी के गुर्गों ने कई लोगों को मारा, साथ ही डीपी के पारिवारिक सदस्यों के साथ उसके कई खास लोगों की भी बलि चढ़ गई। कहा जाता है कि ताबड़तोड़ हत्याओं से जब डीपी और उसके दुश्मन तंग आ गए और हर समय मौत के भय से परेशान रहने लगे, तो दोनों ने गोपनीय समझौता कर लिया कि दोनों शांति से जीवन जीयें और मारा-मारी छोड़ कर अपना-अपना धंधा करें। डीपी पर नौ हत्या, तीन हत्या के प्रयास, दो डकैती के साथ तमाम मुकदमे अपहरण और फिरौती वसूलने के भी लिखे जा चुके हैं एवं एनएसए के साथ टाडा और गैंगस्टर एक्ट के तहत भी कार्रवाई हो चुकी है। इस पर हत्या का पहला मुकद्दमा गाजियाबाद के कवि नगर थाने में दर्ज किया गया। अधिकांश मुकद्दमे हरियाणा के अलावा उत्तर प्रदेश के गाजियाबाद, बुलंदशहर और बदायूं जिले में ही दर्ज हैं। बहुचर्चित केस जेसिका लाल हत्याकांड में भी इसका नाम उछला था और मनु शर्मा के साथ इसका बेटा विकास यादव दोषी सिद्ध हो चुका है।
अकूत संपत्ति अर्जित करने बाद भी डीपी यादव की छवि एक गुंडे और माफिया वाली ही थी, जिससे निजात पाने के लिए यह छटपटा रहा था। 80 के दशक में कांग्रेस के बलराम सिंह यादव ने इसे कांग्रेस पिछड़ा वर्ग का जिला गाजियाबाद का जिला अध्यक्ष बना दिया, तो डीपी ने नवयुग मार्केट में कार्यालय खोल कर उस पर अपने पदनाम का बड़ा सा बोर्ड लगाया। मतलब नेता बनने की चाह इसके अंदर पहले से ही गहरे तक थी। इसी बीच यह महेंद्र सिंह भाटी के संपर्क में आ गया। असल में महेंद्र सिंह भाटी ही इसे राजनीति में लाये। पहली बार डीपी यादव विसरख से ब्लाक प्रमुख चुना गया। इसके बाद मुलायम सिंह यादव के संपर्क में आ गया। कहा जाता है कि पार्टी गठन करने के बाद मुलायम सिंह यादव को धनाढ्य लोगों की जरूरत थी। डीपी को एक राजनैतिक मंच चाहिए था और मुलायम सिंह यादव को पैसा, सो दोनों का आसानी से मिलन हो गया। मुलायम सिंह यादव ने इसे बुलंदशहर से टिकट दिया और यह धनबल व बाहुबल का दुरुपयोग कर आसानी से जीत भी गया। सरकार बनने पर मुलायम सिंह यादव ने इसे मंत्रिमंडल में शामिल किया और पंचायती राज मंत्रालय की ज़िम्मेदारी दी, लेकिन जिस पैसे के लिए मुलायम सिंह यादव ने डीपी यादव को हाथों-हाथ लिया था, उसी पैसे के कारण मुलायम सिंह यादव ने डीपी यादव से दूरी बना ली। कहा जाता है कि मुलायम सिंह यादव के करीबियों और पार्टी के खास नेताओं को डीपी यादव आए दिन कीमती तोहफे भेजता था। डीपी यादव पार्टी पर हावी होता, उससे पहले मुलायम सिंह यादव ने डीपी से किनारा कर लिया। तब से मुलायम सिंह यादव और उनके परिवार से डीपी लगातार टकरा रहा है। खुद मुलायम सिंह यादव को संभल लोकसभा क्षेत्र से चुनौती दे चुका है, पर हार गया था, इसके बाद संभल क्षेत्र से ही प्रो. रामगोपाल यादव के विरुद्ध भी चुनाव लड़ा, पर कामयाबी नहीं मिली। पिछले 2009 के लोकसभा चुनाव में मुलायम सिंह यादव के भतीजे धर्मेन्द्र यादव के विरुद्ध बदायूं लोक सभा क्षेत्र से चुनाव लड़ा और इस चुनाव में भी हार गया। डीपी यादव बसपा के साथ भाजपा में भी रहा, पर एक-एक कर जब सबने किनारा कर लिया, तो राष्ट्रीय परिवर्तन दल नाम की अपनी पार्टी गठित कर ली, जो बदायूं और संभल क्षेत्र में पहचान बना चुकी है। डीपी यादव संभल लोकसभा क्षेत्र से सांसद एवं राज्यसभा सदस्य के साथ बदायूं के सहसवान क्षेत्र से विधायक रह चुका है। पिछली बार पूर्ण बहुमत की बसपा सरकार आने पर इसने अपने कथित दल का बसपा में विलय कर लिया था और धनबल व बाहुबल के साथ सत्ता का दुरुपयोग कर अपने भतीजे जितेंद्र यादव को एमएलसी बनवा लिया था। अपने साले भारत सिंह यादव की पत्नी पूनम यादव को जिला पंचायत अध्यक्ष की कुर्सी पर आसीन करा लिया था। यह सपा में चल रही गुटबाजी का भी लाभ लेता रहा है।
डीपी यादव को उसके गुर्गे मंत्री जी कह कर पुकारते हैं, क्योंकि डीपी को मंत्री जी कहलवाना ही पसंद है। डीपी के गुर्गे आम जनता के बीच दावा करते हैं कि मंत्री जी सिद्धांतवादी हैं, इसलिए बड़े नेताओं ने उनके विरुद्ध फर्जी मुकद्दमे दर्ज करा दिये हैं, जबकि मंत्री जी नैतिकता के दायरे में रहने वाले बड़े ही सभ्य और शालीन व्यक्ति हैं। उनके गुर्गे हैं, तो वह तो कुछ भी दावा करेंगे, लेकिन गाजियाबाद पुलिस डीपी यादव को ऐसा अपराधी मानती है, जो कभी नहीं सुधर सकता, तभी गाजियाबाद पुलिस इसकी हिस्ट्रीशीट खोल चुकी है। गाजियाबाद पुलिस सही भी लगती है, क्योंकि जो डीपी यादव कभी हथियारों के बल पर लूट करता था, वह आज कानून का सहारा लेकर लूट रहा है। डीपी आज अरबों रुपए की हैसियत वाला शख्स है, लेकिन आज भी धोखाधड़ी करने से बाज नहीं आ रहा। बदायूं जिले के कस्बा बिसौली के पास रानेट चौराहे पर डीपी ने यदु शुगर मिल नाम से फैक्ट्री खोली है, इस जमीन को डीपी ने धोखाधड़ी से ही हड़पा है।
शातिर दिमाग डीपी ने अपने परिवार के सदस्यों के साथ अपने गुर्गों के नाम पट्टे आबंटित कराये और बाद में सभी पट्टों का श्रेणी परिवर्तन करा कर यदु शुगर मिल के नाम बैनामा करा लिया, जबकि नियमानुसार ऐसा नहीं कर सकते। नियमानुसार पट्टे जिस उद्देश्य से दिये गये हैं, वह उद्देश्य पट्टाधारक पूरा नहीं कर रहा है, तो पट्टे नियमानुसार निरस्त कर दिये जाने चाहिए, साथ ही पट्टे गलत सूचना के आधार पर जारी किये हैं, क्योंकि समस्त पट्टाधारक पहले से ही धनाढ्य हैं और बड़े शहरों में निवास करते हैं, लेकिन सभी को बिसौली तहसील क्षेत्र के गांव सुजानपुर का निवासी दर्शाया गया है। इसके अलावा संबंधित जमीन खतौनी में खार के रूप में दर्ज है, जिसका पट्टा नहीं किया जा सकता। डीपी यादव द्वारा कराये गये फर्जी पट्टे वर्ष 1991 के बताये जाते हैं, लेकिन वर्षों तक इस बात को जानबूझ कर दबाया गया, क्योंकि सात वर्षों के बाद पट्टों का श्रेणी परिवर्तन कराया जा सकता है। श्रेणी परिवर्तन के बाद फर्जीवाड़े का खुलासा हुआ। इसके बाद मामला शासन-प्रशासन के संज्ञान में आया, तो छानबीन की गयी, लेकिन पट्टों से संबंधित कहीं कोई रिकॉर्ड नहीं मिला। राजस्व अभिलेखागार की ओर से 30 मई 2011 को स्पष्ट आख्या दी गयी कि पट्टों से संबंधित कोई रिकॉर्ड उसके पास नहीं है, लेकिन बाद में फाइल अचानक प्रकट हो गयी और इससे भी बड़े आश्चर्य की बात यह है कि जिन अफसरों के हस्ताक्षरों से पट्टे जारी हुए हैं, वह लेखपाल और तहसीलदार जीवित ही नहीं हैं, वहीं संबंधित एसडीएम सेवानिवृत हो गये हैं। साफ है कि शातिर डीपी यादव ने सेटिंग से फर्जी पत्रावली तैयार करा दी। लेखपाल रमेश और तहसीलदार चिंतामणी के कार्यकाल के पट्टे दर्शाये गये हैं, जिनका निधन हो चुका है, ऐसे में वह आकर गवाही नहीं दे सकते, साथ ही एसडीएम रामदीन हिन्दी के सरल हस्ताक्षर करते थे, उनके हस्ताक्षर फर्जी बनाये गये हैं। उक्त प्रकरण में शिकायत पर पिछली बसपा सरकार ने कार्रवाई के निर्देश भी दिये थे, लेकिन प्रशासन ने डीपी के दबाव में रुचि नहीं ली।
पट्टेधारकों की सूची पर नज़र डालें तो डीपी यादव के दोनों बेटों के साथ उनके परिवार के अन्य सदस्यों, प्रतिनिधियों और नौकरों के ही नाम हैं, साथ ही पट्टाधारक छोटे बेटे कुनाल को मिल का डायरेक्टर बनाया गया है। कुल 33 पट्टे हैं, जो संजीव कुमार, जयप्रकाश, सत्यपाल, देवेन्द्र, राकेश, लोकेश, नरेश कुमार, विजय, जितेन्द्र, सत्तार, सतेन्द्र, विक्रांत, बीना, सरिता, विजय कुमार, मंजीद, विकास, कुनाल, रमेश, राजेन्द्र, नरेश, भूदेव, नवरत्न, दीपक, विवेक पुत्र श्री कमल राज, भारत, पवन, विजय, विवेक पुत्र श्री मदन लाल, अरुण, मनोज, धर्मेन्द्र और अभिषेक के नाम से जारी कराये गए हैं। मतलब अरबों की संपत्ति अर्जित कर धर्मपाल यादव से डीपी यादव बनने वाले इंसान की सोच आज भी धर्मपाल यादव वाली ही है, फिर भी वह अपेक्षा करता है कि लोग उसे किसानों का मसीहा कहें। स्कूल और कालेज खोले हैं, इसलिए लोग उसे महापुरुष कहें। डीपी को यह ज्ञान नहीं है कि लोग लगातार डकैती डालने वाले व्यक्ति को बाल्मिकी जैसा सम्मान नहीं दे सकते।
खैर, डीपी यादव की गुंडे की ज़िंदगी से मंत्री जी तक की हकीकत कहानी ज्यादा लगती है, लेकिन कहानी है नहीं। वास्तव में ऐसे शातिर दिमाग इंसान की सही जगह सलाखों के पीछे ही है, लेकिन देश की धीमी न्यायायिक प्रक्रिया का लाभ लेना धनाढ्य डीपी के लिए कठिन कार्य नहीं हैं, पर जनता को यह सब नज़र अंदाज़ नहीं करना चाहिए। लोकतंत्र की गरिमा बनाये रखने का दायित्व प्रत्येक नागरिक का है और उस दायित्व का निर्वहन प्रत्येक नागरिक को करना भी चाहिए।