मध्य प्रदेश के जगदलपुर में जन्मे गुलशेर खाँ “शानी” प्रसिद्ध कहानीकार और उपन्यासकार हैं, उनकी एक लोकप्रिय कहानी “जगह दो, रहमत के फरिश्ते आएँगे” आपके समक्ष पेश है …
भीतर पहुँच कर मैंने राहत की साँस ली। धीरे आकर बैठ गया। पता नहीं पप्पू मियाँ कब आकर मेरे पीछे खड़े हो गए थे। सलमा किचन में ही कुछ खटपट कर रही थी। हाथ का काम छोड़कर तीर जैसा सवाल उसने मेरी ओर फेंका, ‘क्या हुआ?’
‘होने को था ही क्या,’ मन में आया कहूँ, लेकिन मैं गुस्से और तिलमिलाहट को पी जाने की कोशिश में खामोश रहा। जब स्कूटर आकर घर के सामने रुका था, कई बच्चों ने टूटकर यही सवाल किया था। तब भी मैंने जवाब नहीं दिया था और किसी से आँखें मिलाए बिना घर के अंदर हो गया था।
‘क्यों, क्या हुआ?’ सलमा ने अपना सवाल दुहराया।
मैं कुछ कहूँ, इससे पहले ही पीछे से पप्पू मियाँ का जवाब आया –
‘ब्राउनी को छोड़ आए।’ ‘छोड़ आए! पर कहाँ?’
‘वहीं अस्पताल में।’ गुस्सा और अपराध भाव दोनों को दबाते हुए मैंने धीरे से कहा। जानता था कि अब मेरे स्वर में सहारा ढूँढ़ने वाली अजब-सी निरीहता आ गई है। फिर अपने आप ही कैफियत देते हुए मैंने कहा, ‘भई, उसे बेहद उलझाने वाली बीमारी हो गई थी।’ कम-से-कम महीने भर का इलाज जरूरी था। फिर डॉक्टरों ने भी कहा कि उसे हर रोज अस्पताल लेकर आना पड़ेगा, दवा-दारू का जो खर्च हो, सो अलग। खैर, खर्च की तो कोई बात नहीं थी, लेकिन उसे रोज लेकर अस्पताल दौड़े चले जाने का वक्त किसके पास है? जानती तो हो ही कि …’
‘लेकिन उसे छोड़ा किसके पास?’ सलमा ने अधीरतापूर्वक कहा।
‘बताया न, वहीं अस्पताल में दो लोग मिल गए थे।’ एक पल रुककर मैंने जवाब दिया, ‘मैंने डॉक्टर से कहा भी कि उसे दाखिल कर लें। वे कहने लगे कि हम दाखिल तो कर लें, लेकिन यहाँ अस्पताल की ओर से खाने का कोई इंतजाम नहीं, खाना पहुँचाने आपको ही आना पड़ेगा। मेरी मानिए तो आप इसे ले जाइए, और रोज इसी वक्त ले आया कीजिए… असल में सलमा, सोचो तो, इतनी जहमतों के लिए अपने पास गुंजाइश कहाँ है…’
कहते हुए मुझे साफ लगा कि मैं सलमा को पटाने या अपनी ओर मिलाने की कोशिश कर रहा हूँ।
‘पापा!’ सूफिया ने कहा ‘वे अस्पताल वाले आदमी क्या ब्राउनी को अपने साथ ले गए?’
‘हाँ।’
‘क्या वे उसे पाल लेंगे पापा?’ इस बार शाहनाज की आवाज थी, ‘लेकिन फिर इलाज के लिए तो उन्हें भी अस्पताल ले जाना पड़ेगा, नहीं?’
मैंने हाँ और नहीं के बीच जैसे सिर हिला दिया। पता नहीं, मेरे जवाब से उसे संतोष हुआ था या नहीं, क्योंकि अपने ही बच्चों की ओर देखने का साहस मुझमें नहीं रह गया था। लगा कि मैं सारे बच्चों की नेजे-जैसी आँखों से यूँ घिरा हुआ हूँ, जैसे कटघरे में खड़ा खून का मुजरिम।
उनमें सलमा के अतिरिक्त कुर्सी के पीछे सहमे-से पप्पू मियाँ, बड़ी बच्ची शाहनाज, छोटी सूफिया ही नहीं, पड़ोस के अमित, मनीषा, कल्याणी और गुड्डू मियाँ भी हैं। पता नहीं वह मेरी उदास खामोशी थी या अकारण गुस्से का भाव, आगे किसी ने न तो कुछ कहा और न पूछा। यही नहीं, धीरे-धीरे सब वहाँ से खिसक गए, पप्पू मियाँ भी। सलमा ने हाथ का काम फिर उठा लिया और खामोशी के साथ यों लग गई थी, जैसे मैं वहाँ हूँ ही नहीं।
उसी क्षण मैंने पहली बार जाना कि बिल्कुल अकेला होना किसे कहते हैं। अगर यह विपत्ति थी, तो इसका बीज लगभग महीने-भर पहले ही पड़ चुका था। उसी दिन, जब ब्राउनी हमारे घर आई थी।
कुत्तों से मुझे कभी कोई दिलचस्पी नहीं रही, बावजूद इस सच्चाई को मानने के कि लिए कि कुत्ता बेहद ईमानदार और प्यार करने वाला जानवर होता है, मेरी कभी हिम्मत नहीं पड़ी। अगर कभी एकाध बार मोह उपजा भी हो, तो उसके साथ ही जहमतों, उलझनों और परेशानियों की याद दिलाकर मैंने अपने मोह को कुचल दिया था। लेकिन मैं हैरान हूँ कि मेरे बिल्कुल बरअक्स हमारे साहबजादे पप्पू मियाँ को जानवरों और खासकर कुत्तों से इतना लगाव कैसे पैदा हो गया!
पिछले दो बरसों से उनका यह आलम था कि खूबसूरत कुत्तों की तो बात ही और, बद-सूरत या गैर-दिलचस्प कुत्तों पर भी जान छिड़के जा रहे हैं। मेरे दोस्तों में से वे उनके ज्यादा चहीते दोस्त हो गए थे, जिनके यहाँ कुत्ते हैं। ऐसे घरों में जाने के लिए उनसे तकाजों की भी जरूरत कभी नहीं पड़ी। वे हमेशा पेश-पेश और तैयार मिलते थे।
‘पापा, अब तो हम भी एक कुत्ता पाल लें।’ आखिर एक दिन उसकी फरमाइश ही हो गई, ‘देखिए न, सबों के यहाँ कुत्ते हैं, सिर्फ अपने ही यहाँ नहीं। आप तो हमें बस एक कुत्ता ला दीजिए…’
‘कुत्ता, हमें नहीं पालना है कुत्ता-उत्ता!’ सूफिया ने बुढ़िया जैसे अंदाज में टोककर कहा था, ‘नापाक जानवर है। दादीजान कहती हैं कि जिस घर में कुत्ते होते हैं, वहाँ रहमत के फरिश्ते नहीं आते।’
‘रहमत के फरिश्ते! यह क्या होते हैं?’
‘भैया! रहमत के फरिश्ते…’ सूफिया ने अपने दस बरस के दिमाग पर जोर दिया था, ‘रहमत के फरिश्ते… बस फरिश्ते होते हैं। अल्लाह मियाँ भेजते हैं उन्हें। जिस घर पर वह नहीं आते, वहाँ खुदा की रहमत ही नहीं बरसती और मालूम है, ऐसे घर के लोग बेरहम हो जाते हैं। इसलिए तो कहते हैं कि कुत्ते का खयाल छोड़ दो और कुछ पालना ही है, तो तोता पाल लो।’
‘तोता!। तोते में क्या रखा है। हमें नहीं पालना है तोता-ओता।’
‘लेकिन भैया, फिर रहमत के फरिश्ते…’
‘मत आने दो रहमत के फरिश्तों को। सूफिया को दो-टूक जवाब मिला था, हम तो कुत्ता ही पालेंगे।’
‘पप्पू मियाँ की वह जिद कोई साल भर चली। गाहे-ब-गाहे और मौका वे बराबर अपनी फरमाइश खोंसते रहे थे, लेकिन मैं बराबर बे-असर बना रहा और मेरे बहाने बढ़ते ही चले गए, तो मुझसे निराश होकर आखिर उन्होंने मेरे दोस्तों को पकड़ा था, ‘अंकल, आप हमारे लिए एक कुत्ता ला देंगे?’
जिन दोस्तों ने उन्हें गंभीरतापूर्वक लेकर साफगोई से काम किया था, वे बच निकले थे, लेकिन उनकी बिल्कुल शामत आ गई थी, जिन्होंने निहायत गैर संजीदगी के साथ उनसे वादा कर दिया था। बहुत जल्द वह वक्त आया था जब न तो कुत्ता आया और न वे आए थे और कुछ दिनों बाद श्याम व्यास जैसे दोस्तों ने इधर का रुख करने से ही तोबा कर ली थी।
लेकिन उस रात जब मैं घर लौटा, तो जो पहली खबर जीने पर मिली, वह यह थी कि दोपहर को एक पिल्ला घर आ गया है।
‘अच्छा! मैं चौंका था, कौन लाया? मिश्रा तो नहीं?’
‘पप्पू मियाँ खुद कहीं से ले आए हैं। कह रहे थे पीछे वाली लाइन में उनका कोई दोस्त रहता है। उसके घर पर कुतिया ने पाँच पिल्ले जने थे, सो एक इन्हें मिल गया।’
सब सो चुके थे – पिल्ला भी। पता नहीं, मुझे अच्छा लगा था या बुरा। सहज जिज्ञासावश मैंने देखा था कि वह चाकलेटी रंग का क्रास-ब्रीड था। लेकिन अपने लंबे-लंबे कानों और झब्बेदार दुम के कारण कुछ विशिष्ट ही नही, प्यारा भी लगता था।
‘पड़ा रहने दो।’ मेरी हिचक और पेशोपेश देखकर सलमा ने कहा, ‘और कुछ नहीं तो बच्चे का शौक पूरा हो जाएगा।’
‘वो बात नहीं, सलमा…’
मैं कहना चाहता था लेकिन फिर चुप हो गया। इस बात को क्या सलमा नहीं जानती थी कि अगर अम्मी आईं तो घर पर इस पिल्ले की मौजूदगी को लेकर वे जाने कितने तूफान खड़े करेंगी! जिस घर में कुत्ता फिरा करे, वह पाक कैसे रह सकता है और जब घर पाक ही नहीं तो नमाज कैसे पढ़ी जाएगी?
ब्राउनी का आना जैसे परिवार में एक सदस्य का जुड़ जाना था। बच्चों के लिए आने वाले दूध और पाव-रोटी में उसने पहले दिन से ही अपना हिस्सा जमा लिया था। घर की हर चीज पर, ख्वाह वह पसंद करे या न करे, बराबर का भागीदार बनने में उसे बिल्कुल देर नहीं लगती थी। फिर उसके सबसे बड़े हिमायती और मालिक पप्पू मियाँ बराबर अपनी मम्मी के सिर रहते थे। हर लम्हा उसका ध्यान, हर कदम पर उसका लाड़, हर बात पर उसकी बात। यह संयोग मात्र नहीं था कि पप्पू मियाँ और बच्चों और सलमा ने बहुत जल्द मुझे भी अपनी जद में ले लिया था और एक दिन अपने को यह पाते मुझे देर नहीं लगी कि फुरसत के मौकों पर मैं भी उससे खेलने लगा हूँ…
‘पिल्ली तो यह बुरी नहीं’ एक दिन ऐसे ही किसी मौके पर मेरे किसी दोस्त ने कहा था, ‘लेकिन यह हर वक्त खुजाती क्यों रहती है?’ कहीं इसे खुजली उजली तो नहीं हो रही ?’
उस वक्त तो दोस्त की बात में कोई वजन नहीं लगा था, लेकिन हफ्ते भर के अंदर यह विश्वास करना पड़ा कि वह बीमार है। जिस तरह सारा दिन बेचैन और बेदार होकर वह अपने समूचे बदन को खुजलाया करती थी और बावजूद सारी खुराक के वह दिन-ब-दिन सूखती जा रही थी, वह सबको परेशान करने के लिए काफी था। यही नही, देखते-देखते कई जगहों से उसके जिस्म के बाल उड़ गए थे, खाल उपड़कर लटक गई थी और यह कहना मुश्किल हो गया था कि वह सड़क पर आवारा और लावारिस फिरने वाली खुजली की मारी कुतिया नहीं, हमारी ब्राउनी है।
‘पापा, इसे अस्पताल ले चलो।’
फिर पप्पू मियाँ का यह तकाजा शुरू हो गया था, जिसे मैं कई दिनों तक पीता रहा। कई दिनों तक ऐन सुबह के वक्त कई तरह के जरूरी काम निकल आते थे। फिर सच्ची बात तो यह थी कि अपनी मशरूफ जिंदगी में से एक पूरी सुबह कुत्ते के लिए निकाल देने का खयाल अजब ही नहीं, मुश्किल भी लगता था। तब और जबकि खुद अपना मेडिकल चेक-अप कराना था, सलमा को जरूरी तौर पर लेडी हास्पिटल ले जाना था, सूफिया को किसी कानों के डाक्टर के पास पहुँचाना था और…
फिर भी मैं क्या करता? कैसे और कहाँ तक बचता, खासकर तब, जबकि पप्पू मियाँ एक सुबह अपनी ब्राउनी को गोद में उठाए सीधे मेरे स्कूटर पर ही सवार हो गए थे कि या तो ब्राउनी आज अस्पताल जाएगी या कभी नहीं जाएगी।
‘पापा!’ सहसा शाहनाज की आवाज से मैं चौंका – ‘पप्पू मियाँ रो रहे हैं।’
सुनकर जैसे धक्का लगा। वह पल अजीब था, जिसमें हैरानी हुई, गुस्सा आया, क्षोभ भी और भीतर उमड़ने वाला एक ऐसा दर्द, जिसके मुँह को शालीनता, गंभीरता और बड़प्पन के खोल में मैंने मूँद रखा था। मैं लपककर पहुँचा।
‘पप्पू बेटे’ अपराधी के-से स्वर में मैंने कहा, ‘बेटे, सुनो तो, क्या बात हो गई?’
पप्पू मियाँ, जो अब तक अपनी रुलाई जैसे-तैसे रोके हुए थे, एकाएक फूटकर रो पड़े, ‘पापा, वह तो भूखी-प्यासी मर जाएगी। उसे खाना कौन देगा? उसे पानी कौन देगा…’
वह वाक्य जरा सा था, लेकिन मुझे लगा कि मैं इतना सा होकर रह गया हूँ। ‘बेटे, तुम्ही ने तो कहा था कि उसे छोड़ आएँ।’
इस इल्जाम के सहारे मैं पप्पू मियाँ का मुँह बंद करना चाहता था, जबकि सच्चाई यह थी कि पप्पू ने कभी नहीं कहा था। ब्राउनी से पिंच छुड़ा आने की बात, उसे घेर कर जबरन मैंने ही कहलवाई।
अस्पताल में जब मैं घिर गया था और देखा कि छुटकारे की कोई सूरत नहीं, तो मजबूरी में घिसटता-घिसटता मैं कंपाउंडर के काउंटर पर खड़ा था। मैं दवा लेना चाहता भी था और नहीं भी। और उसे अस्पताल में दाखिल करवाने की कोशश के पीछे क्या था? क्या यह पिंड छुड़ाना नहीं?
‘बड़ी खुजली हो गई है।’
काउंटर के पास एक आदमी ने दूसरे से कहा।
‘हाँ, बहुत। बड़ी नकिस बीमारी होती है।’
वे दोनों कुत्ते को देख रहे थे और उससे भी ज्यादा पप्पू मियाँ को, जो दवा सनी कुतिया को पूरे एहतियात, प्यार और जिम्मेदारी से सँभाले हुए थे।
‘क्यों साहब, यह कुत्ता आपका है?’ एक ने पूछा।
‘जी।’
‘अल्सेशियन है?’
‘जी नहीं, यों ही है। कंबख्त को जाने कहाँ की बीमारी लग गई, परेशान हो गए हैं।’
‘अमाँ जब अल्सेशियन नहीं, तो क्यों परेशान होते हैं?’ दूसरे ने मुझसे सहानुभूति पूर्वक कहा था, ‘वैसे भी यह अब आपके किस काम का। भगाओ साले को।’
क्षण भर को यह प्रस्ताव बहुत क्रूर और निर्मम लगा था। क्षण के उसी अंश में मैं यह सोचकर सहम गया था कि दो निहायत मामूली-से आदमियों ने मुझे एक नजर में पढ़ लिया है। लिहाजा खुद को और उन्हें झुठलाते हुए मैंने प्रतिवाद किया था, ‘ऐसे कैसे भगा दें?’ इतने लाड़ से पाला है… और फिर यह जाएगी कहाँ? भगा दिया तो भूखी-प्यासी मर जाएगी?’
‘अजी साहब, कुत्ते कहीं भूखे-प्यासे नहीं मरते! इसका है क्या। कहीं भी पेट भर लेगी।’
कुछ देर में असमंजस में पड़ा रहा। फिर काउंटर से हटकर मैं पप्पू के पास आ गया था। उसके चेहरे को देखता और अच्छी तरह तौलता हुआ कि इस बातचीत का उस पर क्या असर हुआ है। फिर उसके सात बरस के दिमाग पर निर्णय का सारा भार डालते हुए, मैंने पूछा था, ‘क्यों बेटे, क्या करें?’
अस्पताल के अहाते से निकलते हुए मैंने स्कूटर तेज चलाया था। उन दोनों आदमियों ने मेरी बड़ी मदद की थी। फैसले के बाद जब हम स्कूटर पर सवार हुए थे, तो ब्राउनी हमारी ओर लपकी थी, लेकिन उनमें से एक आदमी ने उसे भागते हुए पकड़ लिया था, और दूसरे ने हाथ का इशारा किया था कि मैं जल्दी से निकल भागूँ।
रास्ते में, काफी खामोसी के बाद पप्पू ने कहा था, ‘वह कैसे टुकर-टुकर देख रही थी न, पापा!’
लेकिन दूसरी बार अस्पताल से लौटने पर मुझे किसी उलझन का सामना नही करना पड़ा। अबकी बार न तो बाहर वालों ने घेरा था न भीतर वालों ने।
‘बेटे, अब तो खुश?’ मैंने स्कूटर से उतरते हुए पप्पू से पूछा था।
उसने सिर हिलाया।
अभी कुछ देर ही पहले उसने कितनी आफत कर दी थी। मैंने उसे दो मर्तबा समझाने की कोशिश की थी। वह मेरे सामने तो चुप हो गया था, लेकिन मेरे हटते ही रोने लगा था।
दूसरी दफा, धीरे से पर्दा हटाकर जो कुठ मैंने चुपचाप कमरे में देखा था, वह विश्वास दिलाने के लिए काफी था कि उसे समझाने की कोशिश बेकार है। देखा था कि बिस्तर पर औंधे पड़े पप्पू मियाँ ने अपने दाँत तकिए में कसकर गढ़ा दिए हैं और रुलाई रोकने की कोशिश कर रहे हैं…
‘चलो, अच्छा फिर देख लेते हैं।’ हारकर मैंने कहा था, अगर वे लोग ले न गए हों, तो ब्राउनी को लौटा लाएँगे, ठीक?’
मैंने एक बार फिर स्कूटर तेज भगाया था – दिल ही दिल यह दुआ करते हुए कि वह मिल जाए, लेकिन खाली हाथ लौटना पड़ा। वहाँ कोई नहीं था।
‘ठीक ही हुआ न, पापा!’ एकाएक जीने पर चढ़ते हुए जब पप्पू मियाँ ने यह कहा, तो मैं चौंक पड़ा।
‘वह अल्सेशियन तो थी नहीं। वह कह रहा था, ‘और वैसे भी अपने किस काम की! नाहक ही परेशान होते।’
और मैं यों हैरान था, जैसे उसेक छोटे से गले में सहसा की अपरिचित और उम्र से भारी आवाज समा गई हो। मैं अँधेरे में दंश खाए मुसाफिर की तरह वहीं खड़ा रह गया। उसी तरह, जैसे एक दिन उसे अपने ही अंदाज में कोई भद्दी गाली बकता सुनकर मैं सन्न रह गया था। उस दिन भी उसे डाँटने के लिए मेरी जबान पलटी थी और मैंने उसे अनसुना कर दिया था। दहलीज पर आते ही मुझे सूफिया मिली। वह मुझे सवालिया नजरों से देख रही थी। मैंने बिना कुछ सोचते हुए बेसाख्ता कहा, ‘सूफिया बेटे, अम्मी को खत लिख दो। कहना, इस घर में अब रहमत के फरिश्तों के लिए जगह हो गई है।’